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Friday, March 29, 2024

अंग्रेजों ने भारत को लूटा – क्या भारत को क्षतिपूर्ति की मांग नहीं करनी चाहिए?

एक बार जब मैंने इस बात का उल्लेख किया था कि नामीबिया में दो जनजातियों ने कुछ साल पहले जर्मनी के खिलाफ, 1885-1918 के उनके औपनिवेशिक शासन के दौरान किए गए अत्याचारों के लिए क्लास एक्शन सूट दायर किया था, तब मधु किश्वर ने मुझे उपरोक्त विषय पर चर्चा के लिए अपने चैनल पर आमंत्रित किया था।
प्री ट्रायल वार्ता के लिए जर्मनी को अदालत से समन मिला और कई दौर के बाद जर्मनी ने माफी मांगी और मुआवजा देने पर सहमत हुआ।

यह लेख उस सामग्री पर आधारित है जिसे मैंने वार्ता के लिए एकत्रित किया था । यह थोड़ा लंबा है क्योंकि इसके तीन भाग है और इसमें स्क्रीनशॉट और लिंक भी शामिल हैं। ठोस न्याय पाने के लिए क्या किया जा सकता है,इस पर आगे के शोध के लिए यह सहयोग के रूप में है:

नाज़ियों द्वारा यहूदियों के भयानक नरसंहार के बारे में सभी जानते हैं । यहूदियों को उप-मानव के रूप में माना जाता था, “अंटरमेन्श्चन” के रूप में। उन्हें व्यवस्थित रूप से जानबूझकर और बहुत निर्दयता से मारा गया ।

इसके विपरीत, पश्चिम में अधिकांश लोग और भारत में भी कई लोग,भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद को “मूल निवासियों के लिए अच्छा” मानते हैं । अंग्रेजों ने मूल निवासियों की देखभाल की, है ना? उन्होंने रेलवे बनाए उन्हें अंग्रेजी शिक्षा दी, कानून दिए, है ना ?

मैं यहां ये बताना चाहता हूं, कि ब्रिटिश उपनिवेशवाद की तुलना नाज़ियों द्वारा किए गए अपराधों से की जा सकती है, और यह कि भारत में उदार ब्रिटिश शासन के बारे में इस झूठे आख्यान को बदलने की जरूरत है,और ज़िम्मेदार लोगों को जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए। (मैं यहां केवल ब्रिटिश उपनिवेशवाद पर ध्यान केंद्रित करूंगा,हालांकि भारत में फ्रांसीसी और विशेष रूप से पुर्तगाली उपनिवेशवाद समान रूप से अमानवीय था और इससे पहले मुस्लिम आक्रमण और मुगल शासन भी उतना ही नृशंस और क्रूरता पूर्ण था)।

आज सभी को सच्चाई का आईना दिखाने की जरूरत है और उन लाखों भारतीयों को न्याय दिलाने की जरूरत है जिनके साथ अमानवीय व्यवहार किया गया, जिन्हें आर्थिक रूप से पूरी तरह नष्ट कर दिया गया ,बार बार और लगातार अपमानित किया गया और बिना किसी पछतावे या शर्म के बेरहमी से मार डाला गया या मरने के लिए छोड़ दिया गया।

भारत की बेहद खराब स्थिति के प्रमाण:

भारत में स्थिति कितनी खराब थी इस से अवगत कराने के लिए मैं यहां विल ड्युरांट की पुस्तक “अ केस फॉर इंडिया” से उद्धृत करूंगा । वह 1930 में पैंतालीस वर्ष की आयु में भारत आए । वे विश्व की सभ्यताओं का अध्ययन कर रहे थे जिसके अंतर्गत वे भारत की महान प्राचीन सभ्यता के बारे में बहुत कुछ पढ़ चुके थे और उसका प्रत्यक्ष अनुभव करने की इच्छा से  वे भारत आए। किंतु यहां जो देखा उससे वह स्तंभित रह गए।वह इतने निस्तब्ध थे कि उन्हें लगा कि सभ्यताओं के बारे में अपनी परियोजना को ताक पर रख कर पहले दुनिया को ये बताना चाहिए कि भारत में क्या हो रहा है।उन्होंने कभी नहीं सोचा था कि कोई राष्ट्र अपनी प्रजा की ऐसी दुर्दशा कर सकता है।

अमेरिका वापस जाने के बाद उन्होंने एक छोटी सी किताब लिखी (जिसे नेट से डाउनलोड किया जा सकता है)-“अ केस फॉर इंडिया”

उसमें परिचय का एक हिस्सा ऐसे है-

“150 वर्षों के दौरान इंग्लैंड द्वारा स्पष्ट रूप से सचेतन, सुनियोजित और सुविचारित ढंग से किये जा रहे खून‌खराबे और अमानवीय अत्याचारों पर मैं विस्मय और आक्रोश से भर गया था। मुझे लगा कि मैं इतिहास के सबसे बड़े अपराध का साक्षी हो गया हूं।

मैं जानता हूं की बंदूकों और हिंसा के सामने शब्द कितने कमजोर होते हैं,साम्राज्य और स्वर्ण की ताकत के आगे ये सच्चाई और शालीनता कितनी अप्रासंगिक लगती है। लेकिन अगर एक भी हिंदू, जो दुनिया के दूसरे छोर पर भी आजादी के लिए लड़ रहा है, उसे मेरी इस बात से थोड़ी भी सांत्वना मिले, तो मेरी लिखी एक छोटी सी किताब पर, जो मैंने यह महीनों का काम किया है, वो सार्थक हो जाएगा

क्योंकि इस समय मेरे लिए भारत की मदद करने से ज़्यादा महत्वपूर्ण काम दुनिया में और कुछ नहीं  है।

शशि थरूर अपनी पुस्तक “इनग्लोरियस एंपायर” में एक सदृश विवरण देते हैं :

बर्क ने हेस्टिंग्स के महाभियोग के अवसर पर अपने उद्घाटन भाषण में ईस्ट इंडिया कंपनी पर अनसुनी क्रूरता, बर्बर विनाश ,…. ऐसे अपराध जो लोभ, लोलुपता, अभिमान, क्रूरता में पुरुषों के दुष्ट स्वभाव में वृद्धि करते हैं वैसे  द्वेष, अहंकार और अक्खड़पन का आरोप लगाया। उन्होंने
ब्रिटिश-नियुक्त कर-संग्राहकों द्वारा बंगाली महिलाओं के उल्लंघन का दर्दनाक वाकया विस्तार से वर्णित किया।

थरूर आगे लिखते हैं :

एक असाधारण स्वीकारोक्ति में, बंगाल में एक ब्रिटिश प्रशासक, एफ.जे. शोर ने  1857 में हाउस ऑफ कॉमंस के सामने  ये गवाही दी कि-” अंग्रेजों का मूल सिद्धांत पूरे भारतीय राष्ट्र को हर संभव तरीके से अपने हितों और लाभ के लिए, गौण एवं अनुसेवी बनाना है । उन पर अधिकतम  सीमा से भी अधिक कर लगाया गया , प्रत्येक प्रांत जो हमारे अधिकार में आता गया, उसे और अधिक वसूली का अखाड़ा बना दिया गया ,और हम हमेशा इस बात की शेखी बघारते रहे कि कैसे हम देसी शासकों से भी अधिक राजस्व निकालने में सक्षम रहे।

1901 में भारत के राज्य सचिव का वेतन, जिसका भारतीय करों द्वारा भुगतान किया जाता था,वो नब्बे हजार भारतीयों की औसत वार्षिक आय के बराबर था।

फिर भी 2015 में ऑक्सफोर्ड में अपने भाषण के अंत में, भारत में अंग्रेज अपने शासनकाल में कितने क्रूर थे,इसका अचूक विवरण देकर और क्षतिपूर्ति के लिए एक ठोस मामला बनाने के बावजूद, थरूर ने उदारता पूर्वक यह कह दिया कि वह वित्तीय क्षतिपूर्ति के पक्ष में नहीं है लेकिन ब्रिटिश सरकार का सिर्फ सॉरी भर कह देना भी काफी होगा और वह स्वयं व्यक्तिगत रूप से इस बात से संतुष्ट हो जाएंगे।
आखिर उन्हें ऐसा कहने की क्या जरूरत थी?

राजीव मल्होत्रा,जिन्होंने हिंदू अभियोग के निमित्त महान कार्य किया, वही, बिना किसी स्पष्टीकरण के भी,अंग्रेजों को थोड़ा भी आर्थिक कष्ट नहीं देना चाहते हैं। ब्रिटिश संसद में दिए गए अपने भाषण में उन्होंने उन भारतीयों को,जो क्षतिपूर्ति चाहते हैं, उन्हें” भड़काऊ,अति भावनात्मक और आबंडरपूर्ण लोग जो बस तत्काल लोकप्रियता की तलाश में है” कहा।

मूलतः,मल्होत्रा ने लड़ने से पहले ही हार मान ली क्योंकि उन्हें लगा कि ब्रिटेन वैसे भी कभी अपना अपराध स्वीकार नहीं करेगा और मुआवजा तो बिल्कुल नहीं देगा। उन्होंने जिन ब्रिटिश सांसदों के सामने यह बात कही उनके चेहरे के भाव देखना दिलचस्प है, “मैं बता दूं कि, ब्रिटेन कभी भी  प्रतीकात्मक रूप में भी एक छोटी राशि भी नहीं देगा और “हम दोषी हैं” “हम शर्मिंदा हैं”  ऐसा कहे, वो कभी नहीं होगा”

वह ऐसा क्यों करेंगे ?

क्या उन्हें नहीं लगता कि ब्रिटेन को सत्यनिष्ठा से अपने अपने अपराधों को स्वीकार करना चाहिए और उनके अपने देशवासियों को न्याय मिलना चाहिए?उदाहरण के तौर पर उन लाखों लोगों को, जो अफीम और नील की जबरन खेती, और ब्रिटेन को बड़े पैमाने पर खाद्य निर्यात के कारण भूख से तड़प तड़प कर मर गए थे, या जिन्हें 1833 में गुलामी प्रथा के उन्मूलन के बाद, गुलामों की जगह लेने के लिए दुनिया भर के बागानों के लिए अनुबंधित श्रमिकों के रूप में भेज दिया गया था?

क्या उन्हें नहीं लगता कि हमें अंग्रेजों को यह दृढ़ता से जताना चाहिए कि भारत आज उनकी वजह से ही गरीब है, और आज दुनिया की प्रमुख और श्रेष्ठतम अर्थव्यवस्था नहीं है?

भारत कितना समृद्धि था इस के प्रमाण :

मैं यहां एक जर्मन इतिहासकार (1760- 1842) अर्नाल्ड हरमन लुडविग हीरन को उद्धृत करता हूं:

“प्राचीन काल से ही भारत अपनी समृद्धि एवं ऐश्वर्य के लिए प्रख्यात रहा है ।” भारत के धन, वैभव और समृद्धि ने महान सिकंदर के मन पर भी एक मजबूत छाप छोड़ी थी, और जब वह भारत के लिए रवाना हुआ तो उसने अपनी सेना से कहा था कि वे उस ‘सुनहरे भारत’ के लिए अपना सफर शुरू कर रहे हैं जहां अपार धन का भण्डार है, और  उन्होंने जो कुछ अब तक फारस में  देखा था वह भारतवर्ष के धन और ऐश्वर्य की तुलना में कुछ भी नहीं।

एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका में “हिंदुस्तान” लेख के लेखक भी टिप्पणी करते हैं कि “भारत स्वाभाविक रूप से ही अपार धन एवं समृद्धि के लिए प्रतिष्ठित था”

1780 सीई में भी, मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा बृहत्काय और दर्दनाक लूट के बावजूद भारत अभी भी तुलनात्मक रूप से समृद्ध था और औरंगजेब सभी यूरोपीय राजाओं के समान धनवान था। आम हिंदुओं ने बहुत कष्ट सहा था। उन पर अत्यधिक कर लगाया गया, उनके मंदिरों को नष्ट कर दिया गया, उनके ज्ञानवर्धक पाण्डुलिपियों को जला दिया गया, बुरी तरह से अपमानित किया गया और लाखों लोगों को मृत्यु के घाट उतार दिया गया।

इन अपराधों के लिए भी अभिस्वीकृति और सुधार की आवश्यकता है और ऐसा लगता है कि यह अब धीरे-धीरे प्राचीन मंदिरों को पुनः प्राप्त करने के रूप में हो रहा है, जिसका कि इस्लाम में धर्मांतरित भारतीय पुरजोर विरोध कर रहे हैं , वही, जिनके पूर्वजों ने बड़े दबाव में धर्मांतरण किया होगा और जो अब अपने नए धर्म और आस्था (जिसे अंग्रेजों ने भी पोषित किया) के प्रति पूरी तरह से बुद्धिभ्रष्ट कर दिए गए हैं, जिसमें हिंदुओं को सबसे खराब प्राणी के रूप में देखने की विचारधारा भी शामिल है।

अब पहले प्रश्न पर:

अंग्रेजों ने भारत की अकूत संपत्ति को कैसे ख़ाली कर दिया?

उत्सा पटनायक,जेएनयू प्रोफेसर ने दशकों तक इस प्रश्न का अध्ययन किया। उन्होंने कमोडिटी एक्सपोर्ट सरप्लस को मापदंड मानकर उस पर पांच प्रतिशत का ब्याज दर लगाया जिससे  पैंतालीस ट्रिलियन डॉलर के आंकड़े आए।

उन्होंने एक और लेख में समझाया कि कैसे ईस्ट इंडिया कंपनी ने जो किया वह कितना क्रूर,आपराधिक एवं जबरन वसूली का मामला था।

भारत अनेक वस्तुओं का उत्पादन करता था। अब सामान्यतः जब आप कुछ निर्यात करते हैं तो आपको अपने निर्यात के बदले सोना, विदेशी मुद्रा या सामान वापस अपने देश में मिल जाता है। भारत प्राचीन काल से एक अधिशेष निर्यातक था और इसलिए उसके पास बहुत सारा सोना और धन था। हालांकि,जब 1765 में ईस्ट इंडिया कंपनी को मुगलों से अपने नियंत्रण वाले क्षेत्रों में कर एकत्र करने का अधिकार मिला तो ये धन का प्रवाह रुक गया।अंग्रेजों ने न केवल अस्सी से नब्बे प्रतिशत कर वसूला बल्कि इन भारतीय करों से ही ब्रिटिश आयातक, ईस्ट इंडिया कंपनी ने आयातित माल का भुगतान भी किया । यह वास्तव में बहुत ही कुटिल एवं भयावह था।

प्रोफेसर उत्सव पटनायक लिखती हैं कि 1765 के बाद से ईस्ट इंडिया कंपनी ने हर साल भारतीय बजट के राजस्व का एक तिहाई हिस्सा ब्रिटेन में सीधे आयात के लिए बड़ी मात्रा में माल खरीदने के लिए आवंटित किया, जो इस देश की अपनी जरूरतों से कहीं अधिक था। इन सामानों की ठंडे देशों में अत्यधिक कीमत थी और ब्रिटेन के लिए वे मुफ्त थे…. क्योंकि उनका भुगतान भारतीय करों द्वारा  किया जाता था। वह उस समय‌ अंतरराष्ट्रीय क्रय शक्ति का प्रतिनिधित्व करते थे,क्योंकि जिसकी उन्हें आवश्यकता नहीं होती थी उन वस्तुओं का  यूरोप और अमेरिका को फिर से निर्यात कर देते थे जिसके बदले में उन्हें खाद्य,लोहा और अन्य सामान मुफ्त में मिल जाता था।

1861 में जब ईआईसी का क्राउन में विलय हुआ तो हालात और भी खराब हो गये। अब मूलत: भारत से होने वाले सभी निर्यातों का,(ना केवल ब्रिटेन को होने वाले निर्यात)भारतीय करों द्वारा भुगतान किया जाने लगा। लंदन में सरकार ने उन लोगों को, जो भारत से आयात करना चाहते थे और जिन्होंने पहले सीधा भारत के साथ सौदा किया था, यह निर्देश दिया कि वे बैंक ऑफ इंग्लैंड में सोना या स्टर्लिंग जमा करें और इसके बदले सरकार ने रुपए के बराबर मूल्य के ‘काउंसिल बिल’ जारी किए गए जो भारत को भेजे गए। भारतीय निर्यात घरानों और उत्पादकों को भारतीय कर संग्रह से भुगतान किया गया जिसे “विदेश में व्यय” के रूप में बजट किया गया था। फिर उस बैंक ऑफ इंग्लैंड से ,जिसकी स्थापना और स्वामित्व नेथन एम रोथ्सचिइल्ड  की थी,सोना और विदेशी मुद्रा भुगतान दोनों गायब हो गये,

प्रोफ़ेसर पटनायक लिखती हैं कि अभी हाल तक यानि 1900-1928 तक, भारत के पास,अमेरिका के बाद, दूसरा सबसे बड़ा माल निर्यात अधिशेष था।

आगे वह कहती हैं,”इस चालाकी ने भारतीयों को, 175 वर्षों में अर्जित की गई विशाल क्रय शक्ति के एक-एक अंश से वंचित कर दिया। यहां तक कि औपनिवेशिक सरकार को भी भारत के विशाल सोने और विदेशी मुद्रा की कमाई के किसी हिस्से का श्रेय नहीं दिया गया जिसके एवज में वह रुपए जारी कर सकते थे अर्थात,उत्पादकों को उनके अपने करों से भुगतान करने ने,भारत के निर्यात अधिशेष को अनुत्तरित बना दिया और लंदन के लिए कर वित्तपोषित को ख़ाली करने का निकास बना दिया।

बड़े पैमाने पर सामूहिक खपत को निर्यात के लिए निचोड़ा गया । इस निर्यात में चीन को अफीम और इंडिगो  शामिल थे, जिसके कारण भयानक अकाल पड़ा तथा जिसमें अनुमान लगाया गया है कि लगभग ढाई करोड़ भारतीय मारे गए । दुर्भाग्यवश हर इंसान धीमी मौत मरा।

1904 में खाद्यान्न की खपत 210 किलो थी जो 1946 तक घटकर 137 किलो रह गई।

पटनायक कहती हैं भारतीय जनता को पोषण में गंभीर गिरावट का सामना करना पड़ा। भारत को बेरोजगारी और गरीबी की समस्या विरासत में मिली और तभी से दुनिया भारत के बारे में सिर्फ यही जानने लगी कि यह “बहुत ही गरीब देश था”…

लोगों के साथ ऐसा करने के लिए किस मानसिकता की जरूरत है?

ये वही मानसिकता है जिससे जर्मन नाजियों ने निर्दयता से यहूदियों और जिप्सियों को गैस चेंबरों में भर दिया था।

मानवता को कब एहसास होगा कि हम सभी एक ही स्तोत्र से आए हैं ?

मुझे फिर से उन लोगों की अमानवीय मानसिकता को दूर करने दें जो खुद को श्रेष्ठ मानते हैं जो सभी अब्राह्मिक धर्मों पर लागू होता है।

यहां एक चश्मदीद गवाह के कुछ अंश हैं, जैकब हॉफ़्नर के नाम से एक डच व्यापारी,जो 1871‌ के अकाल के दौरान मद्रास में थे,जिसका अनुवाद बेल्जियम के गेन्ट विश्वविद्यालय के जेकब डी रोवर ने किया था।

ब्रिटिश और नाजी:  उपनिवेशितों का अनुभव

वह सबसे पहले ,भूखे निराहार लोग कैसे दिखते थे इसका वर्णन करते हैं। इसके बजाय उन्होंने 1876 में मद्रास में आए अकाल की तस्वीर दिखाई।

वह लिखते हैं:

वहां हजारों ऐसे इंसान घूमते दिख रहे थे जो युवा और बूढ़े, आदमी और औरत सभी थे। अपने शरीर में बची आखिरी ताकत के साथ वे अमीर अंग्रेजों से भीख मांगने के लिए चौक पर आए थे लेकिन सभी दरवाजे बंद रहे जिसके फलस्वरूप वे सभी एक के बाद एक,निर्जीव ‌हो गिरते चले गए। वहां लाशें एक दूसरे के ऊपर ऐसे पड़ी थीं जैसे युद्ध के मैदान में पड़ी हों, हर तरफ से पीड़ितों की चीखें सुनाई दे रही थी,भीख मांगते हुए वे उन बेरहम अंग्रेजों के सामने अपने हाथ फैलाते हुए दया की याचना कर रहे थे,जो अपनी बालकोनी में अपनी वेश्याओं के साथ मौज मस्ती कर रहे थे, जिन्होंने अपने हाथों में पकड़े भोजन के कारण चौक पर भूख को और भी असहनीय बना दिया था।

मृत्यु कुछ भी नहीं है, लेकिन अपनी पत्नी, बच्चे अपने माता-पिता को भूख से तड़पते देखना और उन्हें भयानक  ठंड में मरते देखना यह मृत्यु से कहीं बढ़कर है। अगर मैं केवल मद्रास में देखी गई भयानक छवियों के बारे में सोचता हूं तो मेरी रीढ़ में सिहरन दौड़ जाती है। मैं उन्हें कभी नहीं भूल पाऊंगा।

लेकिन कोई पूछ सकता है कि क्या गरीब भोले भाले भारतीयों को सहारा देना पूरी तरह से असंभव था? क्या शहर में कोई प्रावधान नहीं थे?

हां था! जिनके पास अंग्रेजों और उनके एजेंटों की अतिशय कीमत चुकाने के लिए पैसा था उनके लिए पर्याप्त भोजन था।अंग्रेजी कंपनी और कुछ अंग्रेज व्यापारियों के गोदामों में सभी प्रकार के अनाज पर्याप्त रूप से उपलब्ध थे जो उस समय शहर में रहने वाले लोगों की संख्या से दुगने लोगों को खिलाने के लिए पर्याप्त थे, वह भी लंबे समय तक। अमीरों ने अपनी जरूरत की सभी चीजें खरीदी लेकिन दरिद्र भारतीयों के लिए जिन्होंने मद्रास की ओर पलायन करते समय अपना सब कुछ पीछे छोड़ दिया था,भूख से मरने के अलावा अब उनके पास कोई चारा नहीं था। किसी ने उनकी सुध नहीं ली।
उनकी विनाशकारी स्थिति ने अंग्रेजों के पत्थर दिल को जरा भी प्रभावित नहीं किया, जिन्होंने इन हजारों लोगों की मृत्यु को रोकने के लिए कोई प्रयास नहीं किया और बिल्कुल भी दया नहीं दिखाई

यह इसाई, जो अपने मानवतावादी धर्म पर गर्व करते हैं, अफसोसजनक है कि वे बातें करते, गाते, सीटी बजाते हुए हुए मृतकों और मरते हुए लोगों के बीच से होते हुए अपने विशेष असभ्य अहंकार में चूर चले जा रहे थे।अपनी गाड़ियों और पालकियों से वे मरते हुए उन मूल निवासियों को तिरस्कार की दृष्टि से देखते थे,जबकि वे बेचारे धूल में पड़े,मौत से संघर्ष कर रहे थे या ऐंठ कर अपनी आखिरी सांसें ले रहे थे।

मैंने बहुत ध्यान दिया, कभी-कभी मैं आधे घंटे तक खड़े होकर अंग्रेजों को वहां से गुजरते हुए देखता था और मैं खुले तौर पर यह घोषणा कर सकता था कि मैंने उनमें से किसी के चेहरे पर, उनके सामने जमीन पर पड़े रोते बिलखते चीत्करते और मरते हुए असंख्य लोगों के लिए करुणा का कोई निशान नहीं देखा।इससे भी बदतर दृश्य मैंने देखा कि उनकी वे भावुक कोमल ह्रदया महिलाएं भी अपनी पालकी में जब उन्हें इस युद्ध मैदान के बीचोबीच से ले जाया जा रहा था,उसी शांत उदासीनता के साथ बिना किंचित मात्र भी विचलित हुए बैठी थीं। शायद उनमें से कुछ ऐसी थीं जो एक मकड़ी या चूहे को देखते ही मूर्छित हो जातीं। मैंने इन यूरोपीय महिलाओं को मृत्यु के इस क्षेत्र में बेधड़क टहलते हुए देखा, हंसते हुए,आपस में बातें करते हुए और अपने साथी या प्रेमियों के साथ ठिठोली करते  हुए देखा। कितना बीभत्स, घिनौना और शर्मनाक दृश्य था वह!

आज के ब्रिटिश राजनीतिज्ञों का भारत के प्रति दृष्टिकोण

इन सभी अपराधों के बारे में जानने के बाद कैसा लगता है जब ब्रिटिश सांसद भारत की ‘दक्षिणपंथी’ सरकार की आलोचना करते हैं,जैसा कि नादिया वेट होम ने हाल ही में बोरिस जॉनसन की भारत यात्रा के बाद किया था? कुछ भी हो,मोदी सरकार राइट से ज्यादा लेफ्ट है, अगर लेफ्ट का मतलब अपने गरीबों की देखभाल करना है तो। (राइट और लेफ्ट संवर्ग भारत पर लागू नहीं होते क्योंकि हिंदू धर्म अंधविश्वासी और ‘रूढ़िवादी’ नहीं है बल्कि मूल रूप से वैज्ञानिक है)

एक अन्य सांसद ने अपमानजनक आक्षेप किया कि भारत अपने मुसलमानों के नरसंहार की योजना बना रहा है

क्या अंग्रेज ऐसा कह कर बच सकते हैं? लगता है उन्हें यकीन है कि भारतीय या तो जानते नहीं कि उन्होंने इनके देश के साथ क्या किया या वे बहुत’विनम्र’ हैं और इसका उल्लेख नहीं करेंगे।

इस बीच, ब्रिटिश, ‘मानवाधिकारों के संरक्षक’ की भूमिका निभाते हैं और विशेष रूप से भारत पर सूक्ष्मता से नज़र रखते हैं….जैसे अपनी ओपन डोर्स वॉच लिस्ट में भारत को रखना, ईसाइयों के सबसे बड़े उत्पीड़न वाले शीर्ष दस देशों में शामिल करना। यह सरासर बेशर्मी है ।
दरअसल,ब्रिटिश विदेश और राष्ट्रमंडल कार्यालय के एक प्रवक्ता से जब एबीसी ने आदिवासियों के लिए क्षतिपूर्ति के बारे में सवाल पूछा तो उसने कहा, “हम आधुनिक दिन के भेदभाव और असहिष्णुता (मेरे द्वारा बोर्ड पत्र) को दूर करने के लिए अपनी पूरी कोशिश कर रहे हैं। इसे यहां उद्धृत किया गया है

चूंकि1835 में अंग्रेजों ने भारत में शिक्षा को अपने हाथों में ले लिया इसलिए वे अपने आख्यान को सफलतापूर्वक आगे बढ़ा सके। यह वास्तव में दुर्भाग्यपूर्ण है कि कई भारतीय आज भी इंडोफिल की तुलना में अधिक
एंग्लोफिल हैं। इसका अर्थ है कि वह भारत से अधिक इंग्लैंड से प्यार करते हैं और इस प्रक्रिया में भारत को बहुत नुकसान पहुंचाते हैं। उन्हें एहसास ही नहीं है कि पश्चिमी लोग उनका उपयोग करेंगे लेकिन उन्हें समान कभी नहीं मानेंगे।

भारतीय ज्ञान की लूट

भारत की लूट केवल भौतिक रूप से ही नहीं हुई थी। भारत का गहन ज्ञान भी लूट लिया गया। अंग्रेजों ने पहले भारतीयों को संस्कृत से दूर कर दिया ताकि वह अपने प्राचीन ग्रंथों को और अधिक ना पढ़ सकें और फिर उन्हें ये बताया कि अंग्रेजी साहित्य की आधी संख्या भी भारतीय ग्रंथों के कुल राशि से अधिक मूल्यवान  है। यह एक अविश्वसनीय झूठ था लेकिन भारतीय छात्रों को पता ही नहीं चल सका। वे ब्रिटेन की अतार्किक भाषा सीखने में व्यस्त थे।

इसलिए अंग्रेजों और उनके धर्म प्रचारकों ने प्राचीन भारतीय ग्रंथों का‌ ढेर का ढेर ब्रिटेन भेज दिया। कुछ साल पहले जब मैंने गूगल किया था कि “ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में कितनी भारतीय पांडुलिपियां हैं?” मुझे जवाब मिला “लगभग 8000″। पुस्तकालय की वेबसाइट पर विभिन्न श्रेणियां थीं और खगोल विज्ञान के अंतर्गत, जिसे मैंने क्लिक किया, वराहमिहिर की बृहत् संहिता सूचीबद्ध थी। जब हाल ही में मैंने गूगल से वही प्रश्न पूछा तो मुझे वह वेबसाइट ही नहीं मिली और 8000 की संख्या तो अब बिल्कुल नहीं मिली।

हमारी यह प्राचीन पांडुलिपियां बहुत मूल्यवान हैं और इंग्लैंड के अलावा रूस और चीन सहित कई देशों में हैं। बल्कि कहा जाता है कि रूसीयों ने प्राचीन भारतीय ग्रंथों से,जिसे उन्होंने युद्ध के बाद जर्मनी से  प्राप्त किया था, अपनी पहली अंतर महाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइल का निर्माण किया था । कृपया इस पॉडकास्ट को 47.40 मिनट से देखें। यह काफी रोचक है।

मैं यहां एक दुखद उदाहरण देना चाहता हूं जहां अंग्रेजों ने हमारे प्राचीन ग्रंथों के आधार पर उड़ने वाली मशीन विकसित करने वाले एक मेधावी भारतीय को दबा दिया था। प्रत्येक भारतीय को उनका और उनके शिक्षक का नाम जानना चाहिए : शिवकर बापूजी तलपडे और सुब्बैया शास्त्री।

प्रवीण मोहन के इस वीडियो में कहानी देखने लायक है

तलपडे एक विलक्षण प्रतिभा के धनी थे जिन्होंने तेरह वर्ष की आयु में पीएचडी कर ली थी। पंद्रह वर्ष की आयु में उनकी मुलाकात शास्त्री से हुई जिन्होंने प्राचीन ग्रंथों से विमानों का अध्ययन किया था और उस पर एक किताब लिखी थी। उन दोनों ने एक उड़ने वाली मशीन का निर्माण किया और 1895 में मुंबई के समुद्र तट पर इसका प्रदर्शन किया। यह एक रिमोट नियंत्रित विमान था जो पंद्रह सौ फीट की ऊंचाई पर पहुंचा और दुर्घटनाग्रस्त होने से पहले 37 सेकंड के लिए उड़ान भरी। आठ साल बाद राइट ब्रदर्स का विमान दुर्घटनाग्रस्त होने से पहले 12 सेकंड और केवल 120 फीट ऊंचा उड़ पाया। तलपडे ने अपनी परियोजना में सुधार के लिए अनुदान प्राप्त करने की बहुत कोशिश की किंतु उनका उपहास उड़ाया गया और उन्हें कभी अनुदान नहीं मिला। फिर भी वह अपने घर में पारा इंजन बनाने में कामयाब रहे । जब अंग्रेजों को इसका पता चला तो उन लोगो ने उन पर विस्फोटक बनाने का आरोप लगाया और गिरफ्तार कर लिया। उन्होंने अदालत में पारा संचालित इंजन के बारे में बताया तो वैज्ञानिकों की एक टीम ने कहा कि पारा संचालित उपकरण असंभव है । वह गलत थे। आज नासा अंतरिक्ष यात्रा के लिए पारा आयन इंजन का उपयोग करता है।

तलपडे को जेल में डाल दिया गया और कई साल बाद उन्हें इस शर्त पर रिहा पर दिया गया कि वह अब कोई और निर्माण नहीं करेंगे। लेकिन फिर से उन्होंने निर्माण शुरू किया। इस बार प्राचीन ग्रंथों के अनुसार रुकमा विमान बनाया। यह अफवाह है कि जर्मन वैज्ञानिक इसे गुप्त रूप से जर्मनी ले गए और इसके आधार पर प्रसिद्ध नाजी बेल का निर्माण किया। वास्तव में वह सामान दिखते हैं ।यहां वीडियो से एक स्क्रीनशॉट है:

53 साल की उम्र में दिल से हताश  तलपडे का निधन हो गया। कोई भी निश्चित रूप से अनुमान लगा सकता है कि उनके ब्लूप्रिंट, जिसे उन्होंने अनुदान प्राप्त करने के लिए अंग्रेजों को दिखाया होगा,उसका अंग्रेजों द्वारा अध्ययन किया गया और बाद में राइट बंधुओं द्वारा उपयोग किया गया। ऐसे तेजस्वी भारतीय मस्तिष्क का दमन अत्यंत अनैतिक था। उन्होंने अंग्रेजों के इस तर्क का भंडाफोड़ कर दिया होता कि भारत को रेलवे बनाने के लिए उनकी जरूरत थी। इसके विपरीत विमानों और अंतरिक्ष यान को विकसित करने वाले, भारतीय दुनिया में पहले होते। 

मैंने एक जर्मन का एक उद्धरण पढ़ा (मुझे याद नहीं कि वह कौन था) :  “हम जर्मनों को, सोने और धन से लदे भारत के जहाजों को ब्रिटेन जाते हुए देखना पड़ रहा है । लेकिन हम जर्मन पीछे नहीं रहेंगे। हम उनका ज्ञान जरूर लेंगे..”

1930 के दशक में जर्मन वैज्ञानिकों की कई टीमें तिब्बत और भारत आई, और विमानों और रॉकेट के सहयोग से युद्ध में जर्मनी को लाभ मिला। ।संयुक्त राज्य अमेरिका, द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद, ऑपरेशन “पेपरक्लिप” के तहत, लगभग एक हजार जर्मन वैज्ञानिकों को अपने देश ले गया और उनमें से एक वरन्हर वौन ब्रौन ने नासा के अंतरिक्ष कार्यक्रम को विकसित किया ।

प्रवीण मोहन वीडियो में कहते हैं कि नासा ने सार्वजनिक रूप से घोषणा की है कि पारा आयन इंजन दक्षता में वृद्धि करते हुए यात्रा के समय को कम करते हुए निरंतर त्वरण प्रदान कर सकते हैं‌।

कई अन्य पहलू हैं जहां ब्रिटेन ने भारत का उपयोग और शोषण किया। उदाहरण के लिए, जब तीस लाख भारतीय सैनिकों ने अंग्रेजों की तरफ से द्वितीय विश्व युद्ध लड़ा, और डेढ़ लाख सैनिकों ने अपने प्राणों की आहुति दी तो इस बात की पूरी संभावना है कि भारत के सैनिकों के सहभागिता और बलिदान ने युद्ध के परिणाम में बहुत बड़ी भूमिका  निभाई थी।लेकिन ब्रिटेन ने इसे कभी स्वीकार नहीं किया ।इसके विपरीत उन्होंने भारत को ब्रिटेन के इस युद्ध के लिए भुगतान करवाया।

रॉथ्सचिल्ड आर्काइव वेबसाइट कहती है :

ईस्ट इंडिया कंपनी की पूरी दुनिया के व्यापार के करीब करीब आधे हिस्से की भागीदार थी, विशेष रूप से बुनियादी वस्तुओं के व्यापार में और मुख्य रूप से चीन और भारतीय उपमहाद्वीप के साथ चल रहे उसके व्यापार में।

ईस्ट इंडिया कंपनी भारत में एक प्रमुख सैन्य और राजनीतिक शक्ति बन गई और धीरे-धीरे अपने नियंत्रण वाले क्षेत्रों की सीमा में वृद्धि करते हुए अपनी सेनाओं द्वारा बल के डर के तहत ,स्थानीय शासकों के माध्यम से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर शासन किया।

1803 तक भारत में अपने शासन की पराकाष्ठा पर, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के पास लगभग 2,60,000 की एक निजी सेना थी जो ब्रिटिश सेना के आकार से दोगुनी थी।

इसमें नाथन मेयर रोथ्स्चिल्ड (1777-1836) के बारे में निम्नलिखित प्रकरण का उल्लेख है :

“1834 में सर थॉमस फॉवेल बक्सटन ने अपनी बेटी को खत में अपने एक डिनर के बारे में बताते हुए लिखा,जब नाथन रोथ्सचिल्ड ने एक मौके के बारे में बताते हुए कहा था की -“जब मैं लंदन में रहता था तब  एक बार ईस्ट इंडिया कंपनी के पास आठ लाख पाउंड सोना बिक्री के लिए उपलब्ध था। मैं वहां गया और सारा सोना खरीद लिया। मैं जानता था कि ड्यूक ऑफ वेलिंगटन के पास यह होना ही चाहिए और वह मेरा सबसे अच्छा व्यवसायिक सौदा था।

इसका क्या अर्थ है ? जब रोथ्सचिल्ड ने कहा “उसने यह सब खरीदा लिया ?”  उसने भारत को पैसा भेजा ? इसे निश्चित रूप से नकारा जा सकता है। आम ब्रिटिश जनता को शायद यह  पता नहीं होगा कि कंपनी आयात के लिए भारतीयों करों द्वारा  भुगतान करती थी।

इसके अलावा, ये आठ लाख  पाउंड (=363 टन)एक बहुत बड़ी राशि, लूट ली गई होगी । नहीं तो इसका क्या अर्थ निकाला जाए कि जो उसने कहा कि -“यह अब तक का सबसे अच्छा व्यवसायिक सौदा था”

जबकि वेबसाइट पर यह उल्लेख किया गया है कि वैश्विक व्यापार अपने शुरुआती दिनों से रोथ्स्चिल्ड व्यवसायों का हिस्सा था और ईस्ट इंडिया कंपनी से जुड़ा सबसे प्रमुख नाम ‘मालिक’ के रूप में भी रोथ्सचिल्ड है । वेबसाइट यह भी कहता है-” जबकि कोई सबूत नहीं है कि नाथन के पास शेयर हैं ” संयोग से आज भी रोथ्सचिल्ड्स का उल्लेख फोर्ब्स की सूची में नहीं है । वे अपनी संपत्ति के बारे में बहुत गोपनीय हैं । उनकी कुल संपत्ति काअनुमान तो कुछ अरबों से लेकर सौ या उससे अधिक खरब डॉलर तक का है ।

नाथन रोथ्सचिल्ड ने तो ब्रिटिश राजा को ‘कठपुतली’ क़रार दे दिया था और कहा था कि जो व्यक्ति  साम्राज्य की धन आपूर्ति को नियंत्रित करता है वही ब्रिटिश साम्राज्य को नियंत्रित करता है , उसका मतलब उसके परिवार से था। जब 1860 के आसपास जर्मन सम्राट विलहेम ने पेरिस में रोथ्स्चिल्ड के  महल का दौरा किया तो उन्होंने टिप्पणी की कि “राजाओं के पास यह सामर्थ्य नहीं है। यह अवश्य ही किसी रोथ्सचिल्ड का होगा।”

क्षतिपूर्ति भुगतान के उदाहरण

आइए इस बिंदु पर आते हैं कि ब्रिटेन, और कंपनी, क्षतिपूर्ति के बिल्कुल भी विरोध में नहीं थे। बल्कि उन्होंने उसकी मांग की थी। उदाहरण के लिए – चीन द्वारा अफीम युद्ध हारने के बाद, हांगकांग को वापस सौंपना पड़ा और चीन द्वारा एक राशि का भुगतान किया गया।

प्रथम विश्व युद्ध के बाद ब्रिटेन और अन्य मित्र राष्ट्रों ने भी जर्मनी से हर्जाने की मांग की ।  33 बिलियन डॉलर की यह राशि इतनी बड़ी थी कि इसने जर्मनी की अर्थव्यवस्था को तबाह कर दिया । जर्मनी ने 2010 तक विश्व में प्रथम विश्वयुद्ध के लिए क्षतिपूर्ति का भुगतान किया ।

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद ब्रिटेन और अन्य मित्र राष्ट्रों ने फिर से जर्मनी और अक्षय रेखा देशों से क्षतिपूर्ति की मांग की लेकिन इस बार मुख्य रूप से वस्तुओं के रूप में मांगा। उन्होंने उद्योगों को नष्ट कर दिया और उन्हें जहाजों से बाहर भेज दिया, कोयला और अन्य खनिज संसाधन ले लिए, औद्योगिक उत्पादन का हिस्सा ले लिया। ब्रिटेन ने युद्ध के बाद दो साल तक जर्मन युद्ध बंदियों को जबरन श्रमिकों के रूप में इस्तेमाल किया और रूस और फ्रांस को जर्मन भूमि का पर्याप्त हिस्सा मिला।

जर्मनी द्वारा होलोकॉस्ट के पीड़ितों को किया गया भुगतान सबसे जानी मानी क्षतिपूर्ति है । जर्मनी ने बचे हुए लोगों को  सीधा भुगतान किया और  इज़राइल राज्य को भी अब तक औसतन अस्सी बिलियन डॉलर से अधिक का भुगतान किया है। भुगतान अभी भी जारी है और हाल ही में होलोकॉस्ट से बचे हुए लोगों के जीवन साथी को भी इसमें शामिल किया गया है ,जो अब मृत्यु को प्राप्त हो चुके हैं।

2007 में दूसरी पीढ़ी के होलोकॉस्ट उत्तरजीवियों ने जर्मनी से मनोचिकित्सीय उपचार की लागत की मांग के लिए एक वकील से संपर्क किया। जब जर्मन सरकार से उसका रुख पूछा गया तो एक प्रवक्ता ने कहा “जर्मनी होलोकॉस्ट से बचे लोगों से संबंधित सभी मामलों को बहुत गंभीरता से लेता है”

यहूदियों को उनके लिए काम करने के लिए मजबूर करने वाली जर्मन कंपनियों के खिलाफ एक्शन सूट भी दायर किए गए हैं।

नामीबिया के हेरो और नामा जनजातियों का मामला

1895 और 1918 के बीच जर्मनी वहां औपनिवेशिक शक्ति रहा था और उन दो जनजातियों के एक लाख लोगों को, जिन्होंने विद्रोह किया था, बेरहमी से मार डाला था। उनके वंशजों ने अमेरिका में एक क्लास एक्शन सूट दायर किया और अदालत ने जर्मनी से पूर्व-परीक्षण परामर्श करने को कहा। जर्मनी ने अदालत के समनों को स्वीकार न करके बचने की कोशिश की, लेकिन अंततः उन्हें समन स्वीकार करना पड़ा। नामिबिया और जर्मनी के बीच बातचीत हुई और जर्मनी ने इसे नरसंहार कहने पर सहमति व्यक्त की, 1.3 बिलीयन डॉलर का भुगतान किया और माफी भी मांगी। हालांकि यह जनजातियां खुश नहीं थीं क्योंकि उन्होंने 400 अरब से अधिक राशि की मांग की थी।

व्यक्तिगत मुआवजा

2020 में इंडोनेशिया के एक 83 वर्षीय व्यक्ति, जिसके पिता को 1947 में उनकी आंखों के सामने गोली मार दी गई थी, को डच अदालत के द्वारा दस हजार यूरो का भुगतान किया गया। यहां एक स्क्रीनशॉट है:

जब उनके वकील से पूछा गया कि क्या ऑस्ट्रेलियाई आदिवासी भी हर्जाना मांग सकते हैं तो उन्होंने कहा,
” बिल्कुल”।

लेख‌ आगे कहता है :

“उपनिवेशीकरण के परिणाम स्वरूप मूल निवासियों ने जो कुछ खोया और भुगता है ,उसके लिए उपचार और क्षतिपूर्ति का अधिकार अंतरराष्ट्रीय कानून में निहित है।”

2005 में संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा अपनाई गई एक घोषणापत्र ने घोर मानवाधिकारों के उल्लंघन के पीड़ितों के लिए “उपचार और क्षतिपूर्ति से लाभ का अधिकार” घोषित किया। इसने रोम अधिनियम को प्रतिध्वनित किया जिसने 1998 मे अंतरराष्ट्रीय अपराध न्यायालय की स्थापना की, और “पीड़ितों के संबंध में, पुनर्स्थापना, मुआवजा और पुनर्वास” के  सिद्धांतों की घोषणा की ।

एक मामला जहां ब्रिटेन ने क्षतिपूर्ति का भुगतान किया

2018 में ब्रिटिश गृहमंत्री के ट्रेजरी हैंडल के एक ट्वीट ने ब्रिटेन और उसके उपनिवेशों में कई लोगों को चौंका दिया। हालांकि इसे जल्द ही हटा दिया गया लेकिन यह खबर फैल गई कि मुआवजा दासों को नहीं बल्कि उनके मालिकों को  दिया गया था जिनमें आज के कई प्रमुख परिवार शामिल हैं।

गुलामी के उन्मूलन के बाद ब्रिटेन ने गुलाम मालिकों को मुआवजा देने के लिए रोथ्सचिल्ड से कर्ज लिया। ये पंद्रह मिलीयन पाउंड का कर्ज़  2015 में चुकाया गया है। इसने कई संगठनों को धन का पता लगाने और दासों के वंशजों के लिए क्षतिपूर्ति की मांग करने के लिए प्रेरित किया। कैरेबियाई देशों ने CARICOM का गठन किया, जो इस लक्ष्य का अनुसरण करता है,और जब हाल ही में प्रिंस विलियम और केट जमाइका गए तो उनके सामने  विरोध प्रदर्शन किया गया।

  उत्तरी अमेरिका के मूल निवासी भी हाल के दिनों में अपनी जमीन वापस मांगने में और अधिक मुखर हो गए हैं, और उन्होंने माउंट रुश्मोर से शुरुआत की।
 
  ब्रिटिश सांसद डेनियल कौसिंस्की जर्मनी से और हरजाना चाहते हैं
 
1990 में जर्मनी के एकीकरण के बाद मित्र राष्ट्रों ने द्वितीय विश्वयुद्ध के लिए क्षतिपूर्ति के और दावों को छोड़ दिया। हालांकि, हाल के वर्षों में, विशेष रुप से पोलैंड और ग्रीस में बहस फिर से शुरू हो गई है ।पोलिश मूल के ब्रिटिश संसद डेनियल कौसिंस्की ने कहा कि वह यह जानकर दंग रह गए थे कि ने जर्मनी के पुन: एकीकरण के बाद ब्रिटेन ने किसी भी तरह की क्षतिपूर्ति के अपने अधिकारों के दावे को छोड़   दिया था।

“1990 में इसे छोड़ना एक भयानक गलती थी जो पूरी तरह से गलत संकेत भेज रहा था। मुझे लगता है कि  जर्मनों ने यहां निंदनीय व्यवहार किया है ।”

भारत कहां से शुरू कर सकता है ?

ब्रिटिश म्यूजियम और क्रॉउन ज्वेल से शुरुआत करना समझदारी होगी। शायद ब्रिटेन को छोड़कर, यूरोप में इस विचार का दौर चल  रहा है कि यूरोपीय संघ में जो खजाने हैं, वे वापस वही चले जाएं जहां से आए थे ।

2010 एनडीटीवी को दिए गए एक साक्षात्कार में डेविड कैमरून की प्रतिक्रिया समझ से बाहर है । हालांकि,ऐसा लगता है कि भारत ने ब्रिटेन पर अब तक किसी प्रकार का दबाव नहीं डाला, कोहिनूर के लिए भी नहीं ।

जब उनसे पूछा गया कि क्या आप कोहिनूर वापस करेंगे ?तो कैमरन ने उत्तर दिया, “यह एक ऐसा प्रश्न है जो मुझसे पहले कभी पूछा नहीं गया…” और आगे कहा कि “ब्रिटिश संग्रहालय खाली हो जाएगा”  क्या तर्क है ये? यह तो वही बात हुई की एक चोर कहे कि अगर मैं चोरी की चीजें वापस कर दूंगा तो मेरा अपना घर कितना बुरा लगेगा।

एक अन्य महत्वपूर्ण मुद्दा है, हमारी प्राचीन पांडुलिपियां जो कि लूट ली गई ,यहां तक कि उनके धर्म प्रचारकों द्वारा भी। भारत को यह जानना जरूरी है कि उनके विश्वविद्यालय के पुस्तकालयों में  हमारे कौन से ग्रंथ हैं एवं उनमें से कौन से ग्रंथ अद्वितीय हैं और भारत में उपलब्ध नहीं है। इन्हें वापस लौटाना चाहिए।

एक और स्पष्ट अन्याय, जिसे आसानी से संबोधित किया जा सकता है वह यह है कि ब्रिटेन को द्वितीय विश्वयुद्ध के लिए जर्मनी से हरजाना मिला लेकिन उसमें से कुछ भी भारत को नहीं दिया गया। भारत ने ब्रिटेन के युद्ध के लिए एक बड़ी राशि का भुगतान किया और बड़ी मात्रा में सामान, बंदूक और जानवरों की आपूर्ति की। तीस लाख  सैनिकों को भेजने के अलावा डेढ़ लाख ने तो युद्ध के लिए अपने प्राणों की आहुति दी जिनका इससे कोई लेना-देना भी नहीं था। भारत न केवल इंग्लैंड में भारतीय सैनिकों के लिए एक स्मारक का हकदार है बल्कि निश्चित रूप से अपने वित्तीय हिस्से का भी हकदार है।

फिर वो जनजातियां, जिन्हें जन्म के समय से ही अविश्वसनीय रूप से अपराधी घोषित कर दिया गया था, तथा अन्य समूह ,जैसे बुनकर या जलियांवाला बाग हत्याकांड के वंशज और अपेक्षाकृत हाल ही में (1943) में बंगाल अकाल के पीड़ित, नामीबिया की दो जनजातियों की तरह, वर्ग कार्रवाई का मुकदमा दायर कर सकते हैं।

फिर भी सबसे महत्वपूर्ण बात यह है की रोथ्सचिल्ड जैसे बैंकर और व्यापारी, जिनमें कंपनी के निदेशक भी शामिल हैं, और जिन्होंने अविश्वसनीय संपत्ति जमा की थी, जो भारतीय जनता की भारी पीड़ा के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार थे,उन्हें ,क्रमशः ,उनके परिवारों को क्या उस सारी संपत्ति का जो कुछ उन्होंने लूटा था,वापस भुगतान नहीं करना चाहिए ? यदि उनमें सत्यनिष्ठा और विवेक होता तो ऐसा जरूर करते, लेकिन क्या उनके पास विवेक है? क्या उनकी अंतरात्मा उन्हें कचोटती नहीं?

या क्या वे बिग फार्मा और बिग टेक जैसे बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ साजिश कर रहे हैं कि कैसे वे फिर से मानवता को गुलाम बना सकें और उनका शोषण कर सकें जैसा कि उन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ मिलकर सफलतापूर्वक किया था?

विकिपीडिया का कहना है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान हथियार प्राप्त करने के लिए कई टन सोना अमेरिका और 250 टन सोना कनाडा भेजने के बावजूद ब्रिटेन के पास 1870 में 170 टन, 1950 में 2543 टन सोना था।

संयोग से,रोथ्सचिल्ड के स्वामित्व वाले बैंक ऑफ इंग्लैंड ने, प्रोफेसर उत्सव पटनायक द्वारा उल्लेखित ‘काउंसिल बिल’ को निपटा लिया था। इसका मतलब है कि इसे असली सोना या विदेशी मुद्रा,कुछ कागज़ के बदले में मिला था जिस पर रुपए की राशि लिखी हुई थी, और जिसे भारतीय करदाताओं द्वारा भुनाया गया था। आप लूट की कल्पना करें। एनएम रोथ्सचिल्ड एंड संस कंपनी ने मुख्य रूप से 1810-2004 तक सोने की कीमत निर्धारित की थी।

भारत से इंग्लैंड में कितना सोना और अन्य कितना कीमती सामान गया इस पर शोध किए जाने की जरूरत है। कैसे बड़े बैंकिंग परिवार, प्रमुखत: रोथ्सचिल्ड, ने मुनाफा कमाया?  उदाहरण के लिए आठ लाख पाउंड सोने का एक बार का शिपमेंट(यह 363टन के बराबर है जो आज अधिकांश देशों के सोने के भंडार से अधिक है) जिसे नाथन रोथ्सचिल्ड ने 1814 में खरीदा था या बल्कि वनियोजित किया था, जिसका मूल्य आज के समय में बीस बिलीयन डॉलर से अधिक है। बस यह एक शिपमेंट।

ऐसा लगता है कि आज के समय में यूरोप के साथ उसका कर्म गति पकड़ रहा है ।लेकिन क्या यह उन लोगों को भी पकड़ पाएगा जिन्होंने अपने लालच के कारण भारतीयों को निर्ममता से गरीबी और भुखमरी में धकेल दिया और जो इस कारण बेहद अमीर हो गए? इतने अमीर की, यह कहा जाता है कि वे शक्तिशाली परिवार हर मंदी या मुद्रा अवमूल्यन के पीछे हैं और  इसकी पूरी संभावना है कि उनके पास वह “साधन” हैं, जैसा कि क्लॉथ शॉप ने हाल ही में डब्ल्यूईऐफ में कहा था  “भविष्य के निर्माण के लिए”।

करीब पंद्रह साल पहले, एक भारतीय, संजीव मेहता, ने ईस्ट इंडिया कंपनी को खरीदा था। मुझे आश्चर्य हुआ कि एक भारतीय इस नाम के तहत व्यापार करना चाहेगा, जो भारत और अन्य पूर्व उपनिवेशों में भयानक त्रासदी अत्याचारों की यादों को ताजा कर देता है और शायद ब्रिटेन में पुरानी यादों को ।

हालांकि यह एक वरदान साबित हो सकता है कि मेहता, जो कंपनी द्वारा भारत की दासता से अच्छी तरह वाकिफ है, के पास सभी अभिलेखों और पुस्तकालय सामग्री के पुनर्मुद्रण का अधिकार है ।क्या लूटा गया, किसने लाभ कमाया,  लूटा हुआ धन कहां गया इत्यादि का विस्तृत अध्ययन जरूरी है।

यह उन परिवारों को बेनकाब करेगा जिन्होंने बिना किसी अंतरात्मा की पीड़ा के अन्य मनुष्यों को अपमानित किया, दास बनाया, सताया भूखा रखा और अपने लालच के लिए उन्हें मार भी डाला, जिन में से कई तो अभी भी अत्यधिक धनी हैं।

मुख्य रूप से उनसे मुआवजे की मांग की जानी चाहिए

साथ ही ब्रिटिश राजनेताओं को अपने अपराधों और उनके पूर्व प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल के नस्लवादी रवैये को ध्यान में रखते हुए भारत से डील करते समय अधिक विनम्र होने की आवश्यकता है , जिन्होंने कहा था कि “मैं भारतीयों से नफरत करता हूं ।वे पाश्विक धर्म वाले पाश्विक लोग हैं।”

पहले और सरल कदम के रूप में , उनके द्वारा की गई भारी लूट के बाद ,ब्रिटेन से एक  तरजीही व्यापार समझौता ही तार्किक होगा।

मूल लेख अंग्रेजी में यहाँ पढ़ा जा सकता है: British loot of Bharat – should Bharat not demand reparations? (hindupost.in)

अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद- रागिनी विवेक कुमार

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