दो समाचार समानांतर चर्चा में हैं, एक तो मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का ब्लेसफेमी कानून की मांग करना और दूसरा वसीम रिजवी की किताबा मोहम्मद पर शोर!
इन दिनों शिया वक्फ बोर्ड के पूर्व अध्यक्ष वसीम रिजवी से मुस्लिम बहुत नाराज चल रहे हैं। उत्तर प्रदेश से लेकर हैदराबाद से लेकर उनके खिलाफ खूब प्रदर्शन हो रहे हैं। अब उन पर कई एफआईआर दर्ज हो गयी हैं। यह शिकायतें उनकी विवादित पुस्तक मोहम्मद को लेकर दर्ज की गई हैं। यह कहा जा रहा है कि उन्होंने इस्लाम और मुसलामानों को भारत और पड़ोसी देशों में बदनाम किया है।
हालांकि वसीम रिजवी का दावा है कि इसे लिखने के लिए 300 से अधिक पुस्तकों और मुस्लिम ग्रंथों का सन्दर्भ लिया गया है।
वसीम रिजवी ने पिछले दिनों यह घोषणा की थी कि उनका अंतिम संस्कार हिन्दू विधि विधान से किया जाए और उन्हें मुखाग्नि यति नरसिम्हानंद सरस्वती देंगे।
वसीम रिजवी के खिलाफ अब भारत से लेकर हर स्थान के कट्टरपंथी सक्रिय हो गए हैं। उन पर हर तरह से हमले हो रहे हैं, यहाँ तक कि उन्हें गिरफ्तार करने की और मारने की भी मांग की जा रही है। उनके खिलाफ रैलियाँ निकल रही हैं।
उनके पुस्तक पर प्रतिबन्ध की बातें होने लगी हैं। परन्तु लोग अब उस अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात भी करने लगे हैं, जिसकी लोग दुहाई देते हैं। प्रश्न यह उठता है कि क्या ब्लेसफेमी कानून की मांग इसीलिए की जा रही है कि इस्लाम की कुरीतियों पर कोई कुछ लिख न सके?
इस्लाम के खिलाफ लिखने पर फांसी की सजा और हिन्दुओं के खिलाफ जो लिखा जाता रहा है अभी तक मुस्लिम लेखकों द्वारा, वह क्रांति? यह कैसा दोगलापन है?
जाकिर नाईक बार बार हिन्दू भगवान को अपमानित करता रहता है, परन्तु किसी भी मुस्लिम ने यह नहीं कहा कि वह इस देश में रहने वाले हिन्दुओं के खिलाफ गलत बोल रहा है। उर्दू शायरी में बुत गिराने की बातें होती रहीं, परन्तु मुस्लिम समाज कुछ नहीं कहता। यह सब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दायरे में आता रहा है। परन्तु अचानक से ही ब्लेसफेमी कानून की मांग क्यों की जा रही है?
जब फैज़ की इस नज़्म को क्रांतिकारी कहा जा सकता है:
जब अर्ज़-ए-ख़ुदा के काबे से
सब बुत उठवाए जाएँगे
सब ताज उछाले जाएँगे
सब तख़्त गिराए जाएँगे
बस नाम रहेगा अल्लाह का
तो फिर इस्लाम की कट्टरता पर बात करती पुस्तकों पर प्रतिबन्ध की बातें क्यों होती हैं?
हिंदी फिल्मों में हिन्दू धर्म का जितना मजाक मुस्लिमों द्वारा उड़ाया गया, है या जाता रहा है, क्या उसके विषय में मुस्लिम बोले कि ऐसा नहीं होना चाहिए? सलीम अनारकली जैसी झूठी कहानियाँ फिल्मों के माध्यम से हमारे दिमाग में बैठाई जाती रहीं, यहाँ तक कि क्रूर अकबर को ही प्यार का फरिश्ता बनाकर पेश कर दिया गया, पर मुस्लिमों की ओर से यह आवाज नहीं आई कि हिन्दुओं के साथ ऐसा नहीं होना चाहिए।
परन्तु अब अचानक से ऐसा क्या हुआ है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को ब्लेसफेमी कानून की आवश्यकता आन पड़ी है?
एमएफ हुसैन ने जब हिन्दू देवियों के नग्न चित्र बनाए थे, और जब हिन्दुओं ने विरोध किया था, तो उन्हें ही दोषी ठहरा दिया गया था। क्या यह सब ब्लेसफेमी में नहीं आता है?
हिन्दू माँ सरस्वती को नग्न चित्रित करने वाला क्रान्तिकारी और पेंटर और अब जब कुछ लोग इस्लाम की कुरीतियों पर आवाज उठा रहे हैं तो ब्लेसफेमी का कानून? यह अत्यंत हैरान करने वाली बात है। वसीम रिजवी की किताब “मोहम्मद” में क्या है, यह तो नहीं पता, परन्तु क्या उनकी किताब मोहम्मद ही वह कारण है जिस कारण से मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने यह मांग की है। हालांकि उनकी इस मांग के विरोध में कई कथित लिबरल मुस्लिम सामने आए हैं, जैसे जावेद अख्तर, नसीरुद्दीन शाह, शबाना आज़मी आदि।
इंडियन मुस्लिम फॉर सेक्युलर डेमोक्रेसी (IMSD) ने एक वक्तव्य में कहा कि वह भारत में ब्लेसफेमी के लिए कानून बनाने की मांग का विरोध करते हैं। हालांकि उन्होंने हिन्दुओं को भी घेरते हुए कहा कि “हम हिंदुत्व की कुछ नफरत फैलाने वाली फैक्ट्रियों के लगातार प्रयासों की निंदा करते हैं जो इस्लाम और मुसलमानों को बदनाम करने के लिए समयोपरि काम कर रही हैं।”
परन्तु अभी तक किसी का भी वक्तव्य इस विषय में सामने नहीं आया है कि वह वसीम रिज़वी की किताब “मोहम्मद” का विरोध करते हैं, परन्तु उनकी अभिव्यक्ति की आजादी पर रोक नहीं लगनी चाहिए।
पड़ोसी देश पाकिस्तान में आए दिन ऐसे मामले आते हैं, जब इस कानून की आड़ में हिन्दुओं का शोषण किया जाता है, इतना ही नहीं दुर्गापूजा के दौरान कुरआन के कथित अपमान वाले षड्यंत्र में बांग्लादेशी हिन्दुओं की हत्याओं को अधिक दिन नहीं हुए हैं!