आज पूरा देश गणतंत्र दिवस एवं बसंत पंचमी मना रहा है एवं गणतंत्र के जश्न में सराबोर है। परन्तु विमर्श के युद्ध में ऐसा प्रतीत होता है कि हिन्दू हार गया है क्योंकि वह इस दिन के उस सन्दर्भ को स्मरण नहीं कर पा रहा है, जिसके आधार पर वह अपनी आने वाली संततियों को यह बता सकता है कि हिन्दू बालकों में असीम साहस हुआ करता था और वह अपने धर्म पर अडिग रहते हुए कदम उठाते थे।
वह यह बता सकते हैं कि जो नुपुर शर्मा के साथ आज हुआ कि हिन्दू देवी देवताओं को तो गाली देकर बचा जा सकता है, परन्तु अपने देवी देवताओं का पक्ष रखने के लिए उसका सिर तब भी सिर कलम किया जा सकता था और आज भी नूपुर शर्मा को सिर तन से जुदा की धमकी दी जा सकती है और जैसे उस समय हकीकत राय को मृत्युदंड दिया जा सकता था, तो आज भी कन्हैया लाल का सिर दिन दहाड़े उड़ाया जा सकता है।
यह विमर्श आज के समय में और भी अधिक आवश्यक है, क्योंकि बीते वर्ष ने ही सिर तन से जुदा का नारा सबसे अधिक सुना और संभवतया दशकों के उपरान्त इस आधार पर गले काटे गए कि किसी ऐसे व्यक्ति का समर्थन किया था, जिसने मजहब विशेष के कुछ लोगों के अनुसार कुछ गलत कहा था।
हकीकत राय की कहानी इसलिए भी दोहरानी आवश्यक है क्योंकि एक बड़ा प्रचार तंत्र यह झूठ प्रचारित करता है कि हिन्दुओं में किसी भी बच्चे ने अपने धर्म के लिए खड़े होने का साहस नहीं दिखाया और किसी ने भी अपने प्राणों का बलिदान नहीं दिया। और चूंकि हकीकत राय जैसे बालकों की कहानी इतिहास में तो है, परन्तु विमर्श में नहीं है, इसे दोहराया नहीं जाता! संभवतया किसी भी प्रकार की राजनीति को यह कहानी साधती नहीं है, इसलिए हिन्दू बच्चों की यह कहानी भी उपेक्षा का शिकार हो जाती है।
परन्तु अपनी संततियों को इस वीर बालक की कहानी सुनानी ही है कि बालक ऐसे थे जिन्होनें अपने प्राणों की चिंता नहीं की और इतना ही नहीं वह अपनी देवी के प्रति किए गए अपमान का विरोध ही नहीं करते रहे, बल्कि इस बात पर टिके भी रहे कि उनकी देवी माँ का अपमान नहीं होना चाहिए। उन्होंने मृत्यु चुनी, और वह भी साधारण नहीं बल्कि ऐसी मृत्यु जिसे सुनकर आज बड़े बड़ों की आत्मा कांप जाए! परन्तु क्या लाभ हुआ? आज वह विमर्श से बाहर है, उनके बलिदान दिवस पर किसी भी दिवस की मांग नहीं की जाती है!
वीरता का समस्त विमर्श जो हिन्दुओं से ही उत्पन्न हुआ है, जिसमें बालक भरत का शेर के दांत गिनना भी सम्मिलित था, और जिस विमर्श में हकीकत राय थे, वह विमर्श पूर्णतया विलुप्त है, यहाँ तक कि हिन्दुओं के किसी भी वर्ग से यह मांग नहीं होती कि हकीकत राय के बलिदान दिवस को “वीर दिवस या वीर बालक दिवस” के नाम से मनाया जाए और हकीकत राय का साहस चेतना में सदा के लिए बसाया जाए!
आइये सुनते हैं वीर हकीकत राय की कहानी, सुनें क्योंकि आवश्यक है हकीकत राय को जीवित रखना
हिन्दू खत्री परिवार में हकीकत राय का जन्म 1719 को सियालकोट (वर्तमान में पाकिस्तान) में हुआ था। वह अपने अभिभावक के एकमात्र पुत्र थे। इसलिए अपने घरवालों के लाडले भी थे। बालपन से ही कुशाग्र बुद्धि वाले हकीकत राय ने मात्र चार-पांच वर्ष की उम्र में ही इतिहास और संस्कृत विषय का अध्ययन कर लिया था।
चूंकि वह मुगल काल था, तो दरबार के कामकाज की भाषा फ़ारसी थी, इसलिए उनके पिता ने उन्हें फारसी की पढ़ाई करने के लिए पास की मस्जिद में भेजा था। एक दिन उनके मुस्लिम सहपाठियों ने उनसे माता भगवती के विषय में अपशब्द कहे। इस पर उन्होंने प्रतिवाद किया, तो उनके साथ के मुस्लिम बच्चों ने मौलवी से शिकायत की कि उन्होंने फातिमा बी के विषय में अपशब्द कहे हैं।
बस इतना ही कहना था कि मौलवी और कट्टर मुस्लिमों को बहाना मिल गया।
उसके बाद बालक को शहर के काजी के सामने प्रस्तुत किया गया। परन्तु न ही बालक की बात सुनी गयी और न ही बालक के परिजनों की। और उन्हें मृत्युदंड सुना दिया गया। हाँ, यह जरूर कह दिया गया कि अगर वह इस्लाम क़ुबूल कर लेंगे तो उन्हें बख्श दिया जाएगा। परन्तु वीर हकीकत राय ने इस बात से इंकार कर दिया। उन्होंने स्पष्ट कह दिया कि वह अपना धर्म नहीं बदलेंगे।
उसके बाद उन्हें लाहौर भेज दिया गया, कि मामले की आगे सुनवाई हो। कहा जाता है कि मौलवी भी उनके साथ साथ गए और पूरे रास्ते उन्हें धमकाते रहे। परन्तु फिर भी हकीकत राय नहीं झुके। जिस उम्र में बालक अपनी माताओं की स्नेह भरी गोद में लोरियां सुनकर सोते हैं, उस उम्र में हकीकत राय को यह भी नहीं पता था कि वह जीवित रहेंगे या नहीं।
उन्होंने किसी भी प्रकार से झुकने से इंकार कर दिया। लाहौर में जाकर भी उनके दंड को न ही बदला जाना था और न ही बदला। और उन्हें मृत्यु या इस्लाम दोनों में से एक को चुनने के लिए कहा गया। पर कहा जाता है कि उन्होंने प्रश्न किया कि क्या मुसलमान बनने पर उनकी मृत्यु नहीं होगी? यदि मृत्यु होनी ही है तो अपने ही धर्म में हो!
बालक ने मृत्यु को चुना। और कहा जाता है कि उन्हें आधा जमीन में गाढ़ कर आधे शरीर पर पत्थरों से प्रहार किया जाने लगा। अंत समय में वह राम राम का जाप कर रहे थे। जब पत्थर खाकर वह निढाल हो गए तो जल्लाद ने अपनी तलवार से उनका सिर कलम कर दिया। कुछ लोग कहते हैं कि उन्होंने दस वर्ष में बलिदान दिया, कुछ बारह तो कुछ चौदह! परन्तु उम्र दस से चौदह वर्ष के बीच ही बताते हैं।
जिस दिन उन्होंने अपना सर्वस्व धर्म के लिए बलिदान कर दिया, वह बसंत पंचमी का ही दिन था।
बसंत पंचमी अर्थात चेतना का दिन, स्वयं की सच्ची पहचान का दिन, यह मानने का दिन कि आखिर हम कौन हैं, हमारी पहचान क्या है, हमारी चेतना के विस्तार का दिन!
माँ सरस्वती हमें ज्ञान देती हैं, वह हमारी चेतना का विस्तार करती हैं, हमें हमारी पहचान के प्रति सजग करती हैं, जिससे हम अपने शत्रु की आँखों में आँखें डालकर निर्भीकता से यह कह सकें कि मृत्यु मात्र चोला बदलना ही है!
हकीकत राय ने यही किया, उन पर माँ सरस्वती की कृपा थी कि उन्होंने इस तथ्य को समझ लिया था कि यह देह मात्र एक चोला है और हर किसी को यहाँ पर एक न एक दिन मरना ही है।
विमर्श से विलुप्त क्यों हैं वीर हकीकत राय?
वीर हिन्दू बालक हकीकत राय विमर्श से बाहर क्यों है? यह प्रश्न बार बार पूछा जाना चाहिए! मजहब की कट्टरता में छोटे छोटे बालकों को भी नहीं बख्शा जाता था, यह विमर्श में क्यों नहीं आ पाया? क्यों उन हिन्दू बच्चों और स्त्रियों की कहानियों को हम खुलकर सामने नहीं ला पाते हैं, जिन्होनें अपने धर्म के लिए प्राण त्याग दिए, परन्तु विधर्मियों के अत्याचारों के सामने नहीं झुके!
विमर्श बनाना ही होगा, विमर्श के दायरे में उन सभी कहानियों को लाना ही होगा जिनके भीतर हिन्दू चेतना थी, जिनके भीतर शत्रु बोध था, जिनके भीतर यह कहने का साहस था कि वह प्राण त्याग देंगे परन्तु इस्लाम नहीं क़ुबूल करेंगे!
क्योंकि जब तक यह नहीं होता तब तक हमारे बच्चों के हृदय में आत्महीनता की ग्रन्थि का विकास किया जाता रहेगा, उनसे यह प्रश्न किया जाता रहेगा कि क्या वास्तव में उनके पूर्वजों में से किसी ने भी बलिदान दिया है? जबकि सर्वोच्च बलिदानों से रंगे पड़े हैं इतिहास के पन्ने!