अनारकली ऑफ आरा के निर्देशक अविनाश दास को न्यायालय से जमानत मिल गयी है, और इसके साथ ही लिब्रल्स एवं कथित फेमिनिस्ट आजादी की बात कर रहे होंगे। परन्तु स्वयं को महिलाओं के लिए लड़ने वाले के रूप में बताने वाले, जिन्होंने कथित रूप से औरत आधारित “अनारकली ऑफ आरा” बनाई थी, और जो कथित फेमिनिस्ट लेखिकाओं के बहुत प्रिय हैं, उन पर एक नहीं कई यौन शोषण के आरोप हैं, यहाँ तक यह भी आरोप है कि माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्व विद्यालय की एक छात्रा ने अविनाश दास पर छेड़छाड़ और शारीरिक दुर्व्यवहार का आरोप लगाया था।
भड़ास.कॉम के अनुसार उस समय अविनाश दास भास्कर ग्रुप के हिन्दी टैबलायड अखबार डीबी स्टार के सम्पादक थे और वह अतिथि शिक्षक के रूप में माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्व विद्यालय में अतिथि शिक्षक के रूप में पढ़ाने जाते थे। उस समय छात्रा ने अविनाश के खिलाफ विश्वविद्यालय और भास्कर के प्रबंधन से की थी।
भड़ास4मीडिया ने यह भी पुष्टि की थी कि उन्होंने माखनलाल जनसंचार विभाग की हेड दविंदर कौर उप्पल से बात की और इस बात की पुष्टि भी हुई थी कि छात्रा ने शिकायत की थी। उसके बाद उन्हें भास्कर द्वारा कार्यमुक्त कर दिया गया था।
इतना ही नहीं, एनडीटीवी में काम करते हुए भी उनपर यह आरोप लगे थे कि उन्होंने एनडीटीवी के बैनर का प्रयोग अपने निजी लाभ के लिए किया था और यही कारण है कि उन्हें एनडीटीवी से निकाल दिया गया था।
परन्तु हिन्दी पट्टी की फेमिनिस्ट लेखिकाओं के लिए अविनाश दास जैसे लोग किसी लड़की का यौन शोषण कर सकते हैं और फिर भी महिलाओं के लिए काम करने वाले हो सकते हैं। अविनाश दास जैसे लोग महिला अधिकारों के चैम्पियन बनकर घुमते हैं और खुद उन्हें न केवल ब्रांड का नाम अपने निजी लाभ के लिए प्रयोग करने पर निकाला जाता है, बल्कि साथ ही यौन शोषण के आरोप में भी निकाला जाता है, मगर फिर भी वह यही कहते हैं कि उनके खिलाफ षड्यंत्र किया जा रहा है!
परन्तु कौन करेगा षड्यंत्र, जब हर कोई जानता है कि यूनिवर्सल सिस्टर हुड का दावा करने वाली कथित फेमिनिस्ट गुलाम लेखिकाएँ बहनापे का अर्थ केवल उतना ही जानती है, जितना उनके वैचारिक वामपंथी आका समझाते हैं। उनके लिए वही लोग औरतों के मसीहा हैं, जो उनके वैचारिक मालिकों के अनुसार बताए जाते हैं।
अविनाश दास पर लगे इतने आरोपों के बाद भी फेमिनिस्ट लेखिकाएँ अविनाश दास के ही पक्ष में दिखाई देती हैं। यहाँ तक कि फेमिनिज्म का प्रमाणपत्र भी ऐसे लोगों से प्राप्त करती हैं। यहाँ तक कि एक लड़की उत्पन्ना चक्रवर्ती ने तो अपनी फेसबुक वाल पर ही अपने साथ हुए अनुभव को साझा किया था और चैट के स्क्रीन शॉट साझा किये थे।
इस फेसबुक पोस्ट में उत्पन्ना ने लिखा था कि अविनाश दास ने उन्हें शॉर्टकट समझाने की कोशिश की थी। अमर उजाला के अनुसार लड़की एक न्यूज चैनल में पत्रकार है और वह मुंबई में रहती थी। उत्पन्ना ने अविनाश के साथ वाट्सएप पर हुई बातचीत के तीन स्क्रीन शॉट साझा किए थे।
इस विषय को लेकर भी विवाद हुआ था, परन्तु उसका हल कुछ नहीं निकला। इसमें अविनाश दास ने उत्पन्ना को आर्थिक सहायता का आश्वासन दिया था।
हालांकि भड़ास के अनुसार उत्पन्ना ने शायद कर्ज न मिलने पर चैट सार्वजनिक की थी, परन्तु उत्पन्ना ने इस बात का खंडन किया था और लिखा था कि * भड़ास संचालक ने मुझसे बिना अनुमति लिये कॉल टैप करके अपने पोर्टल पर डाल दिया!!”
उसने स्पष्ट लिखा था कि अविनाश दास उसे मल्टिपल डिसआर्डर और भूतप्रेत से पीड़ित बता रहे थे। और उसने प्रश्न किया था कि उसका दोष क्या है?
भड़ास पर प्रकाशित उसकी पोस्ट के अनुसार उसने पूछा था कि
“क्या मेरा दोष सिर्फ ये है कि मैं बक़ौल अविनाश दास ‘कुछ ज़्यादा ही सख्त हूँ’? क्या यही कारण है कि अविनाश दास मददगार से अब साईकोलॉजिस्ट और तांत्रिक दोनों बन गया है और भड़ास मीडिया को अपने इस घिनौने खेल का भागीदार भी बना रहा है?”
अब ऐसे में फेमिनिस्ट लेखिकाओं के सामने दुविधा आ जाती है कि वह लड़की के साथ जाएं क्योंकि उसके साथ जाने से ही यूनिवर्सल सिस्टरहुड की अवधारणा को बल मिलेगा? परन्तु यदि वह अपने ही आदमियों के खिलाफ खड़ी हो जाएँगी तो कौन उनका साथ देगा?
अभी भी अविनाश दास फेमिनिस्ट लेखिकाओं के चहेते हैं और कई क्रांतिकारी कवियों के भी चहेते हैं। लोग उनका स्वागत जमानत मिलने पर कर रहे हैं, परन्तु प्रश्न उठता है कि क्या अपने खेमे के आदमी होने का मतलब यह होता है कि आप उसके गलत काम पर प्रश्न ही न उठाएं? यह तो मानसिक गुलामी का ही एक उदाहरण है!
महादेव पर अपमानजनक टिप्पणी करने वाले रतनलाल ने उनकी जमानत का स्वागत किया:
हिन्दी साहित्य के कई चेहरे अविनाश दास का स्वागत कर रहे हैं, कवि स्वागत कर रहे हैं:
आपत्ति स्वागत पर नहीं है, और हो भी नहीं सकती है, क्योंकि जमानत आदि कानूनी मामले हैं, और अपने विचारों के लोगों को जमानत मिलने पर प्रसन्नता होनी ही चाहिए, परन्तु जो लोग सामाजिक न्याय आदि की बात करते हैं, जो लोग कथित रूप से महिला के अधिकारों के चैम्पियन होने का दावा करते हैं, वह लोग अपने लोगों पर लगे इन आरोपों पर चुप्पी क्यों साधते हैं, प्रश्न यही है! और हिन्दी साहित्य के कथित लोगों को ठहर कर सोचने की आवश्यकता है कि सत्ता के विरोध का अर्थ क्या यही होता है जो वह कर रहे हैं? और अपने कुकर्मों से वह हिन्दी साहित्य को आम जनता की दृष्टि में कितना गिरा रहे हैं?
कम से कम व्यक्तिगत दुराग्रह में इतना तो ध्यान रहे, परन्तु भाजपा का विरोध करते करते वह लोग यौन शोषण के आरोपों के समर्थन में खड़े हो जाएंगे, यह न ही किसी ने कल्पना की थी और न ही किसी ने कभी सोचा होगा कि हिन्दी साहित्य एक दिन इस स्थिति में भी आएगा, कि एक दिन हिन्दी पट्टी की बड़ी लेखिकाएं यौन शोषण को परे रखकर ऐसे लोगों को फेमिनिज्म का सर्वेसर्वा मान लेंगी?
इन आरोपों पर आगे क्या कार्यवाही हुई है, यह बहुत स्पष्ट नहीं है, परन्तु इन आरोपों के मध्य भी हिन्दी पट्टी का कथित बड़ा फेमिनिस्ट स्वर पीड़िताओं के पक्ष में आया हो, ऐसा विशेष प्रतीत होता नहीं है!
मोदी और भागवत हैं तो सब कुछ मुमकिन है, तुष्टिकरण से तृप्तिकरण तक। हिन्दू जाएँ भाड़ में।