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Friday, April 19, 2024

असम का बलिदानी तुलसा डेहाक

देश की पराधीनता का काल था| अंग्रेजी बन्दर इस देश पर लगातार अत्याचार कर रहे थे| किसी  को स्वाधीन जीवन जीने का अधिकार नहीं था| देश के नौजवानों ने जहां देश की स्वाधीनता के लिए तलवार उठा कर अंग्रेज का अंत करना आरम्भ किया तो इन देश के दीवानों को क्रांतिकारी का नाम मिला| दूसरी ओर गांधी जी भी अपने अहिंसा वादी आन्दोलन से देश को स्वाधीन करावाने के लिये कमर कसे हुए थे| दो अलग अलग विचारधाराएँ किन्तु दोनों का एक ही उद्देश्य था देश को आजाद करवाना| जहाँ क्रांतिकारी आन्दोलन से अंग्रेज भयभीत रहता था, वहां गांधी जी के आन्दोलन से अंग्रेज सुख अनुभव करता था|

इस प्रकार की दो विरोधी विचार धाराएं एक ही उद्देश्य, देश की स्वाधीनता, की पूर्ती के लिए लगी हुईं थीं| इस मध्य ही सन १९४२ आ गया और इस वर्ष गांधी जी ने ‘अंग्रेजो भारत छोड़ो’ नाम से एक आन्दोलन आरम्भ कर दिया| इस आन्दोलन की चिन्गारिया देश के लगभग प्रत्येक कोने में पहुँच गयीं| इस आन्दोलन में हिंसा नहीं थी, इस कारण देश के वह लोग भी इस आन्दोलन के साथ जुड़ गए जिनका कभी साहस भी नहीं होता था कि वह अंग्रेज के विरोध में खड़े हो सकें| इस कारण ही यह आन्दोलन देश का जन आन्दोलन बनता जा रहा था|

आन्दोलन चाहे अहिंसक ही था किन्तु अंग्रेज के लिए यह असहनीय था कि इस देश का कोई भी व्यक्ति उसका किसी भी रूप में विरोध करे और जब यह कहे की अंग्रेजो भारत छोडो तो यह बात तो वह किसी भी अवस्था में सहन नहीं कर सकते थे|

इस सब का परिणाम यह हुआ कि अंग्रेज अपनी करुर्ता पर उतर आया| जहाँ से अंग्रेज के विरोध में किसी आन्दोलनकारी को किसी भी रूप में कोई भी जयकारा लगता तो अंग्रेज न केवल सचेत हो जाता अपितु अपनी सेना को इस क्षेत्र का नाश करने के लिए भेज देता| इस कारण देश के नगर नगर और गाँव गाँव में अंग्रेज द्वारा मार पीट, कत्लेआम करन तथा पूरे के पूरे गाँव को लूट कर गाँव के घरों-दुकानों  में आग लगा देना उसका नित्य का कार्य बन चुका था|

लोग दहल तो रहे थे किन्तु डर नहीं रहे थे| ज्यों-ज्यों अंग्रेज का अत्याचार बढ़ता गया, उसकी विनाश लीला बढ़ती गई, त्यों-त्यों देश पर मर मिटने वाले दीवानों की संख्या भी निरंतर बढ़ती ही चली गई| एक वीर मरता तो दूसरा वीर तिरंगा हाथ में लेकर आगे बढ़ जाता| दूसरा मरता तो तीसरा व्यक्ति तिरंगा झंडा हाथ में लेकर आगे बढ़ कर अंग्रेज का विरोध करने लगता| इस प्रकार कभी न समाप्त होने वाली एक कड़ी सी बन गई इन बलिदानियों की, जो अपने बलिदान को देश की आन से कहीं अधिक छोटा समझते थे|

इस प्रकार एक के बाद एक लगातार बली के पथ पर इस देश के वीर बढ़ रहे थे और नारा लगा रहे थे ‘अंग्रेजो भारत छोड़ो’ और इस नारे के साथ ही स्वाधीनता के लिए अपना चिन्ह तिरंगा भी लहरा रहे थे| किसी ने किसी नगर के थाने पर तिरंगा फहरा दिया, किसी ने अंग्रेज के किसी कार्यालय पर तिरंगा फहरा पाने में सफलता पाई| इस प्रकार देश के लोगों द्वारा अंग्रेज के विरोध की अग्नि धधकते धधकते तीव्र ज्वाला का रूप धारण कर गई|

देश जब इस प्रकार जल रहा हो तो इसकी सूचना दूर दराज के क्षेत्रों में भी जाना निश्चित था| असम प्रदेश के नौगाँव जिले के राजमार्ग से थोड़ा सा हट कर मात्र तीन चार किलोमीटर की दूरी पर एक गाँव आता है, जिसका नाम है बराईपूरिया| इस गाँव को बेकजिया के नाम से भी जाना जाता है| इस गाँव के निवासियों की एक घनी बस्ती बनी हुई थी| जब इस आन्दोलन की लपटें इस गाँव तक भी समाचारों के रूप में पहुँचने लगीं तो गांव वाले यहाँ वहां बैठ कर एक ही चर्चा किया करते थे कि “आर पार की लड़ाई छिड़ चुकी है| कभी भी किसी भी समय ब्रिटिश सेना गाँव में आकर मार काट मचा सकती है|”

इस प्रकार की चर्चा से लोग भयभीत थे और इस भय ने गाँव के लोगों की रातों की नींद भी उड़ा रखी थी|

वास्तव में इन दिनो अंग्रेज का उद्देश्य अत्यधिक दहशत फैला कर लोगों को इस आन्दोलन से दूर रखना था ताकि लोग इस आन्दोलन के साथ जुड़ने के स्थान पर इस आन्दोलन के विरोधी बन जावें और उनके इस व्यवहार से अंग्रेज को अपनी सत्ता बनाए रखने का अवसर मिल जावे और वह इस आन्दोलन को दबा पाने में सफल हों| इस कारण ही अंग्रेज की सेना को आदेश था कि वह किसी भी गाँव में घुस जावे, जिसे चाहे मार दे, जिस के घर को चाहे लूट ले और जब चाहे पूरे के पूरे गाँव को अग्नि की भेंट कर दे|

इन दृश्यों को देख कर जहाँ भय का वातावरण बनता जा रहा था, वहाँ लोग अंग्रेज के विरोध में डटने भी लगे थे, उन्हें अपने जीवन की कुछ भी चिंता नहीं थी|

भारतीय लोग गांधी जी के नेतृत्व में यह आन्दोलन चला रहे थे और इस आन्दोलन की लपटें बढ़ते  बढ़ते पूरे देश को अपनी लपेट में लेती जा रहीं थीं तो दूसरी और कुछ लोगों में भय भी लगातार बढ़ता चला जा रहा था| अब तक यह आन्दोलन असम तक नहीं आया था किन्तु असम के गाँवों तक के लोगों को इस आन्दोलन तथा अंग्रेज के अत्याचारों के समाचार मिलने लगे थे और इस कारण ही वहां के गावों के सर्वसाधारण लोग भयभीत थे, उनकी रातों की नींद उडी हुई थी क्योंकि वह जानते थे कि किसी भी रात में अंग्रेज सेना की टुकड़ी इस गाँव में आकर इस गाँव को बर्बाद कर सकती है|

इस प्रकार की चर्चाओं से गाँवों के लोगों में भय बणा हुआ था कि अकस्मात् १७ अगस्त १९४२ की रात का प्रथम प्रहर बीत चुका था किन्तु भयभीत लोगों की आँखों में नींद का नाम भी नहीं था, वह टकटकी लगाए गाँव की सीमाओं को लगातार निहार रहे थे| वह भयभीत तो पहले से ही थे किन्तु आकाश में घूम रहे बादल और रह रह कर आकाशीय बिजली की चमक उनके भय को और भी अधिक बढ़ा रही थी|

जहां गाँव के लोग भयभीत थे, वहां गाँव में शान्ति बनाए रखने के लिए गाँव के नौजवानों ने एक अमन सेना भी बना रखी थी| अमन सेना के युवकों का यह दल गुप्त रूप से अपने गाँव की रक्षा के लिए भावी योजनायें बनाने में व्यस्त था|

इस मध्य ही एक रात्री में इस दल के समूह में उनके नायक का स्वर गूंज उठा, वह कह रहा था कि “साथियों! मैं आज ही नौगाँव से लौटा हूँ| नया समाचार यह है कि कांग्रेस ने ‘अंग्रेजो भारत छोड़ो’ आन्दोलन की घोषणा कर दी है| महात्मा गांधी का जनता के नाम सन्देश है – ‘करो या मरो’| अत: सारे देश में नेताओं को गिरफ्तार करके जेल में ठूंस दिया गया है| आन्दोलन की बागडोर आम जनता और छात्रों ने संभाल ली है| अनेक शहरों में पुलिस बल से जूझते लोग कुर्बानी दे रहे हैं| आन्दोलन को दबाने के लिए सरकार का दमन चक्र तेजी से घूम रहा है| ब्रिटिश सेणा गाँवों को लूट रही है और आग लगा रही है| अत: हमें अपनी सुरक्षा के लिए स्वयं ही पुख्ता इंतजाम करना होगा|”

दल नायक के इस संबोधन से एक बार तो दल के सब सदस्य शांत हो गए और सन्नाटा सा छा गया| इस सन्नाटे की अवस्था में दल के नायक ने गाँव की सुरक्षा को बनाये रखने के लिए जो योजना बनाई थी, उसे उस ने विस्तार के साथ दल के सब सदस्यों के सामने रखा| इस योजना के अनुसार गाँव के अन्दर प्रवेश करने वाले सब रास्तों पर चोबीस घंटे का पहरा लगा दिया गया|

गाँव में जितने भी नाके बनाए गए थे, इन सब नाकों पर बदल बदल कर गाँव के नौजवानों को निर्धारित कर दिया गया ताकि वह गाँव की सुरक्षा भी करते रहें और विश्राम भी लेते रहें| इस सुरक्षा के लिए प्रत्येक नाके पर सुरक्षा करने वाले पहरेदारों को एक एक तुरही नामक बाजा दिया गया था| सब नाकों के पहरेदार वीरों को यह आज्ञा दी गई थी कि जब भी कभी किसी भी प्रकार के संकट की अवस्था सामने आती दिखाई दे अथवा अंग्रेज की सेना की कोई टुकड़ी इस गाँव की और आती हुई दिखाई दे तो तत्काल जोर दार आवाज में इस तुरही को बजा देना|

इस तरह की आवाज सुनते ही गाँव के सब लोग अपने अपने शस्त्रों को हाथ मे लेकर इस तुरही बजाने वाले नाके पर आ जावें| यह संकेत मात्र उन्हें सचेत कर आत्म रक्षा के लिए निमंत्रण के लिए ही दिया गया था|

देखते ही देखते इस व्यवस्था को आराम्भ किये दो दिन बीत गए किन्तु कोई अप्रिय घटना सामने नहीं आई किन्तु २० अगस्त की रात्री को जब गाँव के एक नाके पर एक १८ वर्षीय युवक तिलका देहाक पहरा दे रहा था तो उसे कुछ आहट सी सुनाई दी| उसे लगा कि हो न हो यहाँ अंग्रेज सैनिकों की कोई टुकड़ी इधर को आ रही है| अभी वह यह विचार कर ही रहा था कि अंग्रेज सेना की एक टुकड़ी इस नाके के निकट आ चुकी थी|

इस टुकड़ी को देखते ही तिलका डेहाक ने तुरंत तुरही उठाई और इसे बजाना आरम्भ कर दिया| अभी उसने तुरही को बजाना आरम्भ किया था कि इस सैनिक टुकड़ी के नायक को समझते देर नहीं लगी कि यह स्वर गाँव के लोगों को सचेत करने के लिए किया जा रहा है| अत: उसने तत्काल अपने पाँव से तिलका को धक्का देकर नीचे गिरा दिया और अपनी बंदूक को तिलका की छाती से सटा दिया और बोला कि “खबरदार! अब अगर यह बाजा बजाया तो सीने से गोली पार कर दूंगा|”

उसकी आवाज को सुनकर तिलका मौन रहा किन्तु वह धुन का पक्का था, आन पर मरना जानता था| इस कारण सैनिक की यह चेतावनी उसे रोक पाने में सफल न हो सकी, उसने सोचा अधिक से अधिक यह सैनिक मुझे मार ही तो देगा किन्तु यदि मैंने मृत्यु की चिंता किये बिना गाँव वालों को सचेत कर दिया तो कितने गाँव वालो की जान बच जावेगी, यह मेरा कर्तव्य भी है, जिसे पूर्ण करना आवश्यक है| यह विचार करते ही तिलका ने तत्काल इस तुरही को मुंह से लगा कर इसमे बड़ी जोर से ध्वनि फूंक दी|

बस फिर क्या था तुरही की ध्वनि को सुनकर सब लोग सजग हो गए ओर अपने अपने शस्त्र उठा कर तिलका वाले नाके की और भाग पडे| तुरही से ज्यों ही आवाज निकली त्यों ही उस सैनिक ने तिलका की छाती में एक साथ अनेक गोलियां पार कर दीं| इस प्रकार अपनी मातृभूमि की सेवा करते हुए देश का एक युवक देश रक्षा के लिए, गाँव के लोगों को बचाने के लिए  मातृवेदी के चरणों में बलिदान हो गया|

तिलका के तुरही की ध्वनी इतने जोर की थी कि देखते ही देखते गाँव के लगभग सब लोग इस नाके पर पहुँच चुके थे| सब सशस्त्र थे| गाँव के इन सब लोगों ने आकर देखा तो इन्हें पता चला कि गाँव पर आक्रमण करने के लिए आये इन अंग्रेज सैनिकों से गांव को बचाते हुए तिलका डेहाक वीरगति को प्राप्त हो चुका है| सैनिक इस गाँव के इस वीर का शव अपने कब्जे में लिए हुए हैं| जब गाँव के लोगों ने सैनकों से तिलका का शव लेना चाहा तो उनमे से एक सैनिक ने गाँव वालों पर बंदूक तानते हुए गाँव के लोगों को आगे बढ़ने से रोक दिया और इस प्रकार बोला- “ खबरदार! यदि किसी ने भी शव को हाथ लगाया तो सब को भून कर रख दिया जावेगा|”

सैनिक की आवाज को सुनकर तिलका के पिता श्री मनीराम जी डेकाह को पुत्र शौक में अत्यधिक पीड़ा का अनुभव हुआ| इस पीड़ा के कारण वह अब तक अपना धैर्य बनाए हुए थे| जब सेना के अधिकारियों ने उनके पुत्र का शव देने के स्थान पर उनको ही चेतावनी दे डाली तो पिता के अन्दर की  आग भड़क उठी| उनका धैर्य टूट गया, उनके अन्दर के प्रतिशोध की आग इतनी भड़की कि कुछ ही क्षणों मे यह बाहर आ गई| अब वीर बालक के वीर पिता मनीराम जी ललकार उठे और बोले- “खून की नदी ही क्यों न बह जाए हम शव को लेकर ही रहेंगे|”

वीर पुत्र के वीर पिता के मुख से इस प्रकार के ओजर्पूर्ण शब्द सुनकर गाँव के लोगों में भी साहस आ गया और उनमे भी वीरता का रक्त संचार करने लगा| सब लोगों ने एक साथ भीषण नाद लगाते हुए,जय घोष करते हुए वीरता के, संगठन स्वरूप संकेत दिया-“ वन्दे मातरम……” इस भीषण नाद को निनादित करने के साथ ही गाँव के सब लोग पूरे जोर से अंग्रेज की इस सैनिक टुकड़ी पर टूट पड़े|

सेना ने भी इस के प्रत्युत्तर में गोलियां चलाई| सेना की गोलियों से गाँव के दो और लोग मारे गए किन्तु वह सेना से गाँव के इस वीर सपूत का शव छीन पाने में सफल हो गए| अब सेना के लोगों को भी समझ गई कि वह थोड़े से हैं, जो पूरे गाँव के लोगों का मुकाबला नहीं कर सकते| यदि इस समय लड़ाई की गई तो एक भी सैनिक जिन्दा नहीं बचेगा| अत: वह जान बचाकर वापिस भाग गए|

अंग्रेज सरकार की सदा ही यह नीति रही है कि कमजोर मिले तो दबा लो और कठोर मिले तो एक बार पीछे हट जाओ और फिर से पूरी तैयारी के साथ आकर अकस्मात् आक्रमण कर के विजय प्राप्त करो| इस योजना के अनुसार सेना के यह लोग एक बार तो भाग गए किन्तु फिर से पूरी तैयारी के साथ गाँव पर चढ़ आये| आते ही इन्होंने इस गाँव के तीन सो लोगों को हिरासत में लेकर अंग्रेज की जेल में ठूंस कर बंद कर दिया|

गाँव की शान्ति सेना गाँव में शान्ति स्थापित करने के लिए कटिबद्ध थी, इस कारण गाँव की इस शान्ति सेना के लोगों ने जब अंग्रेज सेना का विरोध किया तो इस सेना के एक सदस्य को भी अपनी गोली की अग्नि में जला दिया और उसको भी गाँव के लिए बलिदान देने का अवसर मिला गया| इस प्रकार पूरे गाँव को अंग्रेज सेना ने अपने अधिकार में ले लिए और किसी को एक अंगुली तक भी अपनी और नहीं उठाने दी|


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