वर्ष 2015 में भारतीय जनता पार्टी की नीतियों के खिलाफ अपना साहित्य अकादमी पुरस्कार वापस करने वाले कवि अशोक वाजपेयी का ऐसा लग रहा है जैसे भारतीय जनता पार्टी की नीतियों में विश्वास जम गया है, या फिर अब वह भाजपा को अछूत नहीं मानते हैं। आज शाम को 7 बजे हिमाचल कला संस्कृति भाषा अकादमी, शिमला द्वारा उनके कवि कर्म पर एक चर्चा का आयोजन किया जाने वाला था। जिसे लेकर एक बार फिर से सोशल मीडिया पर भाजपा सरकार को काफी खरी खोटी सुनने को मिलीं। कई राष्ट्रवादी बौद्धिकों ने भी ट्विटर पर इसका विरोध किया!
Roz ek tamasha!
Masochism of #BJP leaders is incomparable 😋
Jo joote marey usey god mein bithao, jo joote ghis ghis kar kaam kare…?.😊 https://t.co/TWejZ323B0— Ratan Sharda 🇮🇳 रतन शारदा (@RatanSharda55) June 11, 2021
गौरतलब है कि अशोक वाजपेयी पूर्व में एक प्रशासनिक अधिकारी रहे हैं और साहित्य में भी वह संवेदना के अद्भुत चितेरे कहे जाते हैं। वह वाकई इतने संवेदनशील हैं कि वह कन्नड़ लेखक कलबुर्गी की हत्या और दादरी में हुए हत्याकांड के खिलाफ अपना अवार्ड लौटाने के लिए तत्पर हो गए थे। उन्होंने जैसे उस पूरे अभियान का नेतृत्व सा कर दिया था, और वह उस अभियान का बड़ा नाम हो गए थे। हालांकि यह बात भी सही है कि अशोक वाजपेयी और उदय प्रकाश ने ही अवार्ड की राशि लौटाई थी।
परन्तु फिर से प्रश्न यही खड़ा होता है कि आपने जिस सरकार में असहिष्णुता बढ़ने पर अवार्ड लौटाया, उसी पार्टी की राज्य सरकार के आयोजन में आप जा ही कैसे सकते हैं? क्या आपकी विचारधारा इतनी ही है कि आप केंद्र में एक विचार का विरोध करें और राज्य में नहीं? या अब आपको ऐसा लग रहा है जैसे आपकी प्रिय पार्टियां सत्ता में नहीं आ पाएंगी तो रुख बदल लिया जाए?
संवेदना के अद्भुत चितेरे कहे जाने वाले अशोक वाजपेयी उस समय भोपाल के संस्कृति सचिव थे जब भोपाल अपने जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी से गुजर रहा था, अर्थात भोपाल गैस त्रासदी। 2-3 दिसंबर 1984 को भोपाल में कुछ लोग सोए तो, मगर कभी उठे नहीं! तब से लेकर अब तक कई परिवार सामान्य नहीं हो पाए हैं। परन्तु उस घटना के बाद संवेदना का दावा करने वाले कवि ने एक ऐसा बयान दिया था जिसे लोग अब तक याद करते हैं। उन्होंने कहा था कि मरने वालो के साथ मरा नहीं जाता।
हालांकि साहित्य आज तक में वह अपने आप पर लगे इस आरोप को झुठलाते भी हैं और कहते हैं कि उन्होंने कहा तो था, पर सन्दर्भ अलग था। सन्दर्भ था कि इंडियन एक्सप्रेस के एक पत्रकार ने दो तीन दिन बाद ही भोपाल की सामान्य स्थितियों को देखकर पूछा था कि ऐसा लगता ही नहीं है कि यहाँ पर कोई ट्रेजडी हुई है। तो उन्होंने इसके उत्तर में कहा था कि हाँ, मरने वालों के साथ मरा नहीं जाता!
सन्दर्भ कुछ भी हो, यह वाक्य स्वयं में अत्यंत क्रूर वाक्य है! और इसी घटना के कुछ दिनों बाद ही अशोक वाजपेयी ने विश्व कविता समारोह का आयोजन कराया था। संवेदना की बात करने वाले लोग उस समय कविता कर रहे थे। हालांकि अशोक वाजपेयी इस मुद्दे पर भी कहते हैं कि कविता का उद्देश्य केवल मनोरंजन नहीं होता! जो कवि आए थे उन्होंने पर्यावरण पर कविता पढ़ी थीं! यह सही है कि कविता का उद्देश्य केवल मनोरंजन ही होता है और हो सकता है कि जो आए हों उन्होंने पर्यावरण पर ही कविता पढ़ी हो, परन्तु क्या जो आमंत्रित कवि आए थे, और यदि पर्यावरण पर या दुःख पर कविता पढ़ी तो क्या प्रभावित परिवारों के पास जाकर संवेदना व्यक्त की? या फिर क्या कविता पाठ के लिए दी गयी राशि को प्रभावित परिवारों को दिया होगा? पता नहीं! हो सकता है, यह भी कहा जाए कि पैसे दिए ही नहीं गए थे।
खैर! साहित्य आज तक में ही अशोक वाजपेयी इस बात को स्वीकार कर चुके हैं कि अवार्ड वापसी अपने लक्ष्य में कामयाब रहा था। तो अब घूम फिर कर प्रश्न यही आता है कि ऐसा क्या हुआ कि जो पार्टी आज से कुछ वर्ष पूर्व असहिष्णुता का आन्दोलन चलाने वाली दिख रही थी, वह आज ऐसी लगने लगी, कि उसी के मंच पर जाया जाए?
यह दो तस्वीरें कथित प्रगतिशील साहित्य का दोगलापन स्पष्ट करती हैं:
यद्यपि यह आयोजन संभवतया रद्द हो गया है, फिर भी यह स्पष्ट नहीं है कि किसकी अंतरात्मा के जागने पर यह आयोजन रद्द हुआ है! यह बात सत्य है कि जो भी कवि या कलाकार चुने जाते हैं, उनका चयन अधिकाँशत: ब्यूरोक्रेसी द्वारा होता है, और यही कारण है कि चूंकि उन्हीं उन्हीं लोगों के नाम रिकॉर्ड में दर्ज हैं, तो वही घूम फिर कर जाते हैं. परन्तु यहाँ पर प्रश्न प्रस्ताव स्वीकारने वालों पर है? क्या उनकी विचारधारा यही है कि एक समय विरोध में अवार्ड वापसी करें और दूसरी ओर चुपके से मंच पर पाठ भी?
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