हिंदी साहित्य में प्रगतिशील साहित्य के आगमन के साथ ही एक ऐसे साहित्य का निर्माण होता चला गया जो लोक से कोसों दूर था। जिसमें उसके लोक का धर्म सम्मिलित नहीं था। जिसमें लोक के हिन्दू धर्म से दूर करने का षड्यंत्र था। मार्क्सवादी साहित्य ने अकादमिक जगत पर तो कब्ज़ा जमाया ही, बल्कि उसके साथ विमर्श की धारा पर भी अधिकार कर लिया। एक ऐसा जाल बुना गया, जिसमें यदि उन आलोचकों के इशारों पर नहीं चला गया तो पीएचडी की डिग्री तक नहीं ली जा सकती थी।
यदि यह मात्र पाठ्यपुस्तकों में होता तो भी यह सीमित रहता। इन कविताओं ने अधिकाँश पत्रिकाओं पर, और उसके बाद अब अधिकाँश वेबसाइट्स पर पकड़ बना ली है। यह लोग एक ही बात का रोना रोते हैं कि सत्ता का विरोध करना लेखक या कवि का उत्तरदायित्व है, परन्तु एक बात नहीं बताते कि सत्ता का विरोध करना लेखक का उत्तरदायित्व हो सकता है, यदि सत्ता निरंकुश हो, या अत्याचारी हो। परन्तु यदि जनता ने एक जुट होकर किसी सरकार को चुना है, तो क्या मात्र इसलिए आप उसके विपक्ष में जाकर खड़े हो जाएँगे क्योंकि वैचारिक रूप से आप उस सरकार से सहमत नहीं हैं?
साहित्य का अर्थ है जन के पक्ष में खड़े होना, न कि सरकार का विरोध करते हुए उस विपक्ष के पक्ष में खड़े होकर नारे लगाने लगना, जिस विपक्ष को जनता नकार चुकी है। कविता राजनीतिक न होते हुए भी एक तरफ़ा राजनीतिक हथियार बन गयी और जिसका उद्देश्य केवल हिन्दू धर्म की मूल अवधारणाओं पर प्रहार करना ही रह गया। बजाय इसके कि वह कुरीतियों से लड़ती, उसने लोक के विरुद्ध ही अस्त्र शस्त्र उठा लिए। यहाँ तक कि कविता के नाम पर चलने वाले सामान्य समाचार पत्रों के पृष्ठों पर भी ऐसी ही कविताओं को स्थान मिलने लगा और उन्हें समाज के पक्ष में लिखी हुई कविताएँ बताया जाने लगा।
प्रश्न यह उठता है कि कवि या रचनाकार किसे कहा जाएगा? आचार्य राम चन्द्र शुक्ल कविता क्या है, निबंध में कहते हैं कि ” कविता ही मनुष्य के हृदय को स्वार्थ-संबन्धों के संकुचित मण्डल से ऊपर उठा कर लोक-सामान्य भाव-भूमि पर ले जाती है, जहाँ जगत की नाना गतियों के मार्मिक स्वरूप का साक्षात्कार और शुद्ध अनुभूतियों का संचार होता है, इस भूमि पर पहुँचे हुए मनुष्य को कुछ काल के लिए अपना पता नहीं रहता।
परन्तु आज की डिजाईनर कविताएँ लिखने वाले दरअसल स्वार्थ सम्बन्धों के कारण ही लिखते हैं, जिससे उन पर वामपंथी आलोचक नज़र डालें और उन्हें साहित्य अकादमी, भारतभूषण, रजा अकादमी जैसों से सम्मान प्राप्त हो सके। और भी कई सम्मान चलन में हैं। शुद्ध अनुभूतियाँ किसकी हैं और किसके प्रति हैं, आज की हिन्दू धर्म विरोधी कविता में यह भी नहीं दिखाई देता है, बस है तो केवल हिन्दू धर्म को ऐसे रूप में प्रस्तुत करना, जहां पर उसके प्रति तिरस्कार का भाव उत्पन्न हो।
एक वेबसाईट पर एक कविता पर नज़र डालते हैं:
मेरे बच्चे
माफ़ करना मुझे
तुम्हें संगीत के सा, रे, गा, मा से पहले
दहशत भरी आवाज़ सुननी पड़ी
माँ की लोरी से पहले
मौत की दहाड़ सुननी पड़ी।
******************************
मेरे दोस्त
यह तृतीय विश्व युद्ध चल रहा है
ध्यान रहे गोली, बम, बारूद से नहीं
प्रेम से जीतना है
गर हार गये खुद से
जीत ख़ुदा भी न पायेगा।
यह कविता एक युवा लड़की ने लिखी है, जिसने किसके प्रभाव में लिखी है, यह जानना असंभव नहीं है। यदि इससे पूछा जाएगा कि अभी कौन सी स्थिति चल रही है कि बच्चे को माँ की लोरी से पहले मौत की दहाड़ सुननी पड़ी तो शायद वह नहीं बता पाएगी, और न ही वह यह बता पाएगी कि इस समय कौन सा युद्ध चल रहा है, कैसे इस समय तृतीय विश्व युद्ध चल रहा है, मगर चूंकि इस वेबसाईट ने उसे अब आधिकारिक बना दिया है, तो एक बेहद बचकानी अपरिपक्व कविता समय के इतिहास पर अंकित हो गयी है कि वर्ष 2021 ऐसा एक समय था जब तृतीय विश्व युद्ध जैसा वातावरण था।
दरअसल उसे और उसके जैसों को वाहवाही चाहिए उन वरिष्ठ कवियों की, उन आलोचकों की जो इस काल को फासीवादी काल घोषित कर रहे हैं, और जो इन बच्चों के दिमाग में पाठ्यक्रम की पुस्तकों से इतर भी विष घोल रहे हैं। जिनका यह दृढ विश्वास है कि बाबरी मस्जिद को ढहाना गलत था, और हिन्दू ईसाइयों पर अत्याचार कर रहे हैं।
hindisamay नामक वेबसाईट पर एक आलोचक अरुण होता के लेख पर नज़र डालते हैं
“धर्म, सम्प्रदाय, संस्कृति, जाति और भाषा की खाल ओढ़कर साम्प्रदायिकता लोगों में जहर घोलने का कार्य करती है। उग्र हिंदुत्व की अवधारणा हो या कट्टर मुस्लिम की – यह समाज के लिए कैंसर के समान होती है। बाबरी मस्जिद, ईसाइयों पर अत्याचार और उनकी हत्या, मुस्लिमों का नरसंहार आदि में उग्र हिंदुत्व का हाथ रहा है।”
मजे की बात है कि बहुत बड़े आलोचक, और ऐसे आलोचक जिनकी एक दृष्टि पड़ने के लिए बड़े बड़े लेखक लालायित रहते हैं उन्होंने मुस्लिमों के नरसंहार में हिन्दुओं की बात कह दी है, पर उन्होंने अपने उतने बड़े लेख में उन बम विस्फोटों या कश्मीरी हिन्दुओं के नरसंहार पर एक भी शब्द नहीं कहा है जो मानवता पर सबसे बड़ा धब्बा हैं।
हमारे बच्चे इन कथित आलोचकों की एक दृष्टि पड़ने के लिए लालायित रहते हैं और जिसका परिणाम होता है कच्चे दिमाग वाली अपरिपक्व कविताएँ!
और अंतत: हिन्दू धर्म से विमुखता! अत: हिंदी साहित्य पढ़ाते समय या कविता पढ़ते समय बहुत आवश्यक है यह देखना कि हमारे बच्चे क्या पढ़ रहे हैं और पहचान के लिए लालायित बच्चे किसी ऐसे जाल में तो नहीं फंस रहे जो उन्हें धर्म से दूर ले जाए!
क्या आप को यह लेख उपयोगी लगा? हम एक गैर-लाभ (non-profit) संस्था हैं। एक दान करें और हमारी पत्रकारिता के लिए अपना योगदान दें।
हिन्दुपोस्ट अब Telegram पर भी उपलब्ध है। हिन्दू समाज से सम्बंधित श्रेष्ठतम लेखों और समाचार समावेशन के लिए Telegram पर हिन्दुपोस्ट से जुड़ें ।