इस देश में बहुत कुछ लिखा जाना था, मगर लिखा नहीं गया। इस देश में बहुत कुछ अनुवाद होना था, मगर हो नहीं पाया। इस देश में एक लड़की थी खगानिया। उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले रणजीत पुरवा गांव में रहने वाली खगनिया। बासू तेली की बेटी खगनिया। बासू तेली की बिटिया खगनिया ने जब उन्नाव में आँखें खोली होंगी तो उसे यकीन रहा होगा कि आज जो वह बोलती है, वह कोई तो लिखेगा! और हँसते हुए उसने कई पहेलियाँ रच डाली होंगी। खगनिया ने लिखा है:
सिर पे लिए तेल की मेटी,
घूमति हौं तेलिन की बेटी,
कहों पहेली बहले हिया,
मैं हौं बासु केर खगनिया!
खगनिया को उन्नाव जिले की प्रथम कवयित्री कहा जाता है। और उसकी कही पहेलियाँ अभी तक कुछ लोगों को कंठस्थ हैं। वर्ष 1660 विक्रमी के लगभग खगनिया का जन्म कहा जाता है। भारत की धरती में तब खगनिया जैसी लडकियां भी लिख रही थीं, जब बाकी हिस्सों में स्त्रियों को इंसान ही नहीं माना जाता है। खगानिया ने कभी सोचा न होगा कि कभी उसका नाम सुना ही न जाएगा। पहेली रचने वाली खगनिया एक दिन पहेली बनकर रह जाएगी! आज खगानिया की कोई तस्वीर नहीं है। वामपंथी पुरुषों ने यह इतिहास लिखा, साहित्य का इतिहास। वामपंथी पुरुषों ने मनचाही आलोचना की, और ऐसे में न जाने कितनी खगानिया बिसरा दी गईं। खगानिया ने पहेली रची
आधा नर आधा मृगराज, युद्ध बिआहे आवे काज,
आधा टूट पेट में रहे, बासु केरि खगनिया कहै!
बताइए नरसिंह का इतना सुन्दर वर्णन चेतना से रहित कोई स्त्री कर सकती है? जिसने भी कहा कि भारतीय स्त्रियाँ चेतना रहित थीं, और उन्हें लिखना पढ़ना नहीं आता था, उन्हें खगनिया की यह पहेलियाँ सुनाइये और कहिये कि यह वह धरती थी जहां पर लड़की की चेतना खगनिया के रूप में खनक रही थी। और खगनिया ने अपने पिता बासु को सम्मान दिया। हर पहेली में उसने अपने पिता का नाम लिखा।
तलवार के विषय में खगनिया लिखती है:
इक नारी है बीहड़ नंगी, झटपट बन जाती है जंगी
रकत पियासी खासी रहै, बासू केरि खगनिया कहै!
खगनिया के विषय में यह ज्ञात नहीं है कि उसे अक्षर ज्ञान प्राप्त हुआ था या नहीं, परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि उसे अक्षर ज्ञान नहीं प्राप्त हुआ होगा, क्योंकि यदि ऐसा होता तो उसकी पहेलियाँ कोई और न लिखता।
खगनिया की पहेलियों में व्यथा भी है, प्रश्न ही नहीं है। कोल्हू के बैल के बारे में क्या कहती है सुनें:
पटियां आँखिन माँ बंधवावे, कोल्हू माँहैं वाही चले,
मौन रहे पै विपदा सहे, बासु केरि खगनिया कहै!
खगनिया तेली की बेटी थी अत: कोल्हू के बैल की पीड़ा देखती रही होगी और जिस प्रकार क्रौंच की पीड़ा से वाल्मीकि आदि कवि बन गए थे वैसे ही कोल्हू के बैल की पीड़ा ने उसे उन्नाव की प्रथम कवयित्री बना दिया। यह पीड़ा ही है जो जोडती है और यह पीड़ा ही है जिसने मुझे खगनिया से जोड़ा, पीड़ा इस बात की कि आज खगनिया की कोई तस्वीर ही उपलब्ध नहीं है!
हिन्दू स्त्रियों को हमेशा एक विचार ने नीचा दिखाने का प्रयास किया। बार बार यह कहा जाता रहा कि उन्हें पढ़ना लिखना नहीं आता था, उनमें चेतना नहीं थी। यदि चेतना नहीं थी खगनिया जैसी महिला ने कैसे रच डाला इतना कुछ। और कुछ पहेलियों पर दृष्टि डालते हैं:
ताला पर उन्होंने लिखा है:
“चुप्पी साधे नेकु न बोले, नारी वाकी गांठे खोलें,
दरवाजन माँ ऐसेन लटके, चोरन तें स्वावत बेखटके।
रच्छा घर की करता रहै, बासु केरि खगनिया कहै!
फिर काजल का वर्णन कितना सुन्दर किया है
आँखिन माँ सब लेंय लगे, लरिका बातें हैं सुख पाय,
तनुक न ऊकार कारो रहें, बासू केरि खगनिया कहै!
रुपये के विषय में खगनिया ने लिखा है
कोऊ वाको नेकु न खाय, सब ही वाको लेंय भुनाय,
पास सवहीं के ही वह रहै, बासू केरि खगनिया कहै!
दवात के विषय में खगनिया ने लिखा:
भीतर गूदर ऊपर नांगि पानी पिये परारा मांगि
तिहि की लिखी करारी रहें बासू केरि खगनिया कहै!
ऊपर जितनी भी पहेलियाँ खगनिया द्वारा लिखी गयी हैं, उन्हें ध्यान से देखने से ज्ञात होता है कि खगनिया में ऐसा नहीं था कि चेतना का अभाव था, न ही यह प्रतीत होता है कि उसे सामान्य ज्ञान नहीं था। अर्थात वोक फेमिनिज्म का यह झूठ यहाँ आकर टूटता है कि हिन्दू स्त्रियों में चेतना नहीं थी।
दरअसल वामपंथी इतिहासकारों और साहित्यकारों ने ऐसी स्त्रियों को सामने आने नहीं दिया, जो चेतना संपन्न थी। इसका मुख्य कारण यही है क्योंकि यदि ऐसा हो जाता तो वह अपना आयातित फेमिनिज्म नहीं बेच पाते और आधुनिक लड़कियों को वामपंथ में लाकर गुलाम नहीं बना पाते!
इसलिए उन्होंने इन कहानियों को छिपाया और जिसने भी ऐसी स्त्रियों के विषय में बात करनी चाही उन्हें ही पिछड़ा बता दिया!
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