उदयपुर में कन्हैयालाल हों या अमरावती के उमेश कोल्हे, उन दोनों की हत्या में कई बातें आम हैं, परन्तु एक जो सबसे बड़ी बात आम है वह यह कि दोनों की ही हत्याओं में उनके उन परिचितों का भी हाथ रहा, जो दूसरे मजहब के थे और जिन पर उन्हें विश्वास था! उमेश कोल्हे जी की हत्या में तो उनका सोलह साल पुराना दोस्त डॉ युसूफ भी सम्मिलित था!
कन्हैया लाल की हत्या में भी उनके पड़ोसी के साथ साथ उनके पड़ोस की दुकान में काम करने वाला वसीम भी सम्मिलित था, जिसने यह सूचना हत्यारों तक पहुचाई थी कि कन्हैया लाल ने अपनी दुकान खोल ली है और उसके बाद वह हत्यारे आए और कन्हैया लाल की हत्या कर दी!
यह स्पष्ट है कि यह कोई भी आवेश में उठाया गया कदम नहीं था! यह एक सुनियोजित कदम था, यह बहुसंख्यक हिन्दू समाज के दिल में डर भरने के लिए कदम था! ऐसे ही उमेश कोल्हे की हत्या में भी मुख्य भूमिका में उनका ही सोलह साल पुराना एक दोस्त शामिल था! डॉ युसूफ, जिसे यह नहीं पसंद आया था कि उमेश कोल्हे ने नुपुर शर्मा के पक्ष में क्यों स्टेटस साझा कर दिया!
और डॉ युसूफ ने यह भी नहीं देखा उमेश कोल्हे ने उसके परिवार की आर्थिक मदद भी की थी! मीडिया के अनुसार उमेश कोल्हे ने डॉ युसूफ के बच्चे के एडमिशन के समय और बहन की शादी के समय आर्थिक मदद की थी और इसी युसूफ खान ने व्हाट्सएप स्टेटस साझा करने पर उमेश कोल्हे से बात न करके उस स्टेटस को आगे बढ़ाया और फिर ह्त्या का षड्यंत्र रचा!
और दोनों ही घटनाओं में इन दोनों हत्याओं के साथ विश्वास की भी हत्या की गयी! परन्तु क्या यह ऐसी पहली हत्याएं हैं? क्या विश्वास का खून पहली बार हुआ है? क्या पहली बार अपने धर्म की बात करने वाले हिन्दुओं को छल से मारा गया है? ऐसा नहीं है! आज इन दोनों ही घटनाओं के बहाने पंडित लेखराम के जीवन को स्मरण करने का समय है, जिन्होनें पूरे जीवन भर इस जिहाद के विरुद्ध अपनी आवाज उठाई!
कौन थे पंडित लेखराम और क्यों आवश्यक है उनका जीवन पढ़ना
पंडित लेखराम वह व्यक्ति थे जिन्होनें स्वाध्याय से अपने धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन किया था और जिनके जीवन में एक ही ध्येय था कि कैसे भी करके बस जो किसी लालच वश मुस्लिम बन गए हैं, उन्हें वापस अपने धर्म में लाया जाए!
पंडित लेखराम का जन्म उस समय हुआ था जब भारत दोहरी गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ था! एक ओर से ईसाई धार्मिक और सांस्कृतिक हमले कर रहे थे तो दूसरी ओर मुस्लिम भी हिन्दुओं को लगातार किसी न किसी लालच के बहाने मुसलमान बनाते जा रहे थे! उनका जन्म हुआ था वर्ष 1858 में चैत्र माह में (चैत्र 8, संबत 1915)! वह काल भारत के लिए अजीब समय था! 1857 की क्रान्ति के बाद अंग्रेजों को यह तो समझ में आ गया था कि असंतोष है, परन्तु इतना गहरा असंतोष है यह नहीं पता था!
अनेक प्रकार की चालबाजियां हिन्दू समाज के साथ की जा रही थीं परन्तु साथ ही उस समय भी हिन्दू उस जिहाद से मुक्त नहीं था, जिसका शिकार वह इतने वर्षों से होता आया था! लगातार कट्टर जिहादी तत्व हिन्दुओं को मुसलमान बनाते जा रहे थे!
पंडित लेखराम पुलिस का काम सीखने लग गए थे और इसी दौरान उन्होंने धार्मिक ग्रंथों को पढ़ना आरम्भ किया! उन्होंने ध्यान, समाधि आदि लगाना आरम्भ किया! धीरे धीरे समान और धर्म की दशा देखी! और इसके साथ ही इन्होनें कट्टरपंथी जिहाद को समझा!
वह पुलिस में नौकरी करते थे, और प्राय: उनका विवाद अपने मुस्लिम सहकर्मियों के साथ हो जाता था! जब उन्हें लगा कि नौकरी और धर्म की सेवा एक साथ नहीं चल सकती तो उन्होंने नौकरी छोड़ दी और फिर पेशावर से लाहौर पहुंचे और संस्कृत का अध्ययन किया! जहां कहीं से भी उन्हें यह समाचार प्राप्त होता कि कोई भी हिन्दू व्यक्ति ईसाई या मुस्लिम बन रहा है, वह पहुँचते और अपने तर्कों से उस धर्मांतरण को रोकते!
वह तर्कों से मौलवियों को पराजित करते और बहकाकर मुस्लिम बनाए जा रहे हिन्दुओं को मुस्लिम बनने से बचाते! जहां उनकी लोकप्रियता बढ़ रही थी तो वहीं कट्टरपंथी मुस्लिम उन्हें हर स्थिति में अपने मार्ग से हटाना चाहते थे! परन्तु वह तर्क के आधार पर यह नहीं कर सकते थे क्योंकि तर्क के आधार पर वह जीत नहीं पाते थे!
इसलिए उन्होंने दूसरा मार्ग चुना! और वह रास्ता वही था, जो कन्हैया लाल, उमेश कोल्हे जी के मामले में हमने देखा! वह रास्ता था छल का रास्ता!
चूंकि पंडित लेखराम ने इस्लाम का गहन अध्ययन किया था, अत: वह मौलवियों के झूठ का उत्तर इस्लाम की ही किताबों में से देते थे! यही कारण था कि जब शास्त्रार्थ होता था तो पंडित लेखराम के सामने कोई टिक नहीं पाता था! उन्होंने मौलवियों के इस षड्यंत्र पर और जिहाद पर किताबें भी लिखी थीं! उन किताबों के चलते न जाने कितने लोगों ने मुस्लिम बनने का अपना मन बदल दिया था!
उनपर मौलवियों ने कई बार मुक़दमे भी दर्ज कराए, परन्तु न्यायालय में उनके तर्क नहीं टिक पाए और पंडित लेखराम पर कोई मुकदमा ही नहीं बना! उसके बाद उन्होंने एक कट्टर मुस्लिम युवक को उनके घर पर भेजा, और शुद्धिकरण का बहाना बनाया!
यद्यपि उन्हें भी उनके शुभचिंतकों द्वारा बार चेतावनी दी गयी कि वह इतना विश्वास न करें, परन्तु वह उस पर विश्वास को लेकर निश्चित थे! जैसा शायद कन्हैयालाल जी थे, अपने पड़ोसी को लेकर कि वह कम से कम हत्या तो नहीं करेगा!
परन्तु दिनांक 6 मार्च 1897 को जब वह स्वामी दयानंद जी की जीवनी का लेखन समाप्त करके अंगड़ाई ले रहे थे तो उस कट्टरपंथी ने उनके पेट में छुरी घुसेड़ दी और इस प्रकार पंडित लेखराम जी की असमय मृत्यु कहीं न कहीं विश्वास से उपजी असावधानी से हुई थी!
उनकी हत्या भी जब तर्क से नहीं कर पाए, जब कानूनी तरीकों से नहीं कर पाए, तो उन्हें छल का सहारा लेकर मार डाला! (स्रोत-बलिदान चित्रावली, प्रकाशक- गोविन्दराम हासानंद वर्मा, कलकत्ता और राजपाल, लाहौर, पृष्ठ 10)