शिवाजी औरंगजेब को चकमा देकर वापस आ गए थे और उन तक यह समाचार नियमित पहुँच रहे थे कि उनके आगरा से जाने के परिणामस्वरूप औरंगजेब अपनी हार नहीं पचा पा रहा था, इसका कोप कई मंदिरों को झेलना पड़ा था। शिवाजी यह सब देखकर बहुत दुखी होते थे, परन्तु उनका यह दृढ संकल्प था कि मुग़ल अब दक्कन में कोई युद्ध न जीतें। शिवाजी ने जल्द ही जय सिंह के साथ हुई संधि में दिए गए दुर्ग वापस लेने आरम्भ कर दिए। जीजाबाई के दिल में कोंधाना का दुर्ग जाने की फांस बहुत गहरी थी। वह किसी न किसी कीमत पर उस दुर्ग को मराठा साम्राज्य में वापस चाहती थीं।
एक दिन उन्होंने अपने पुत्र शिवाजी को बुलाया। जब शिवाजी उनसे मिलने के लिए पहुंचे तो उन्होंने शतरंज की एक बाजी खेलने की इच्छा व्यक्त की। यद्यपि शिवाजी को तनिक हैरानी हुई, परन्तु वह उनका मान रखने के लिए खेलने लगे। वह बाजी हार गए और फिर जीजाबाई से प्रश्न किया
“आप मुझे क्या दंड देना चाहती हैं?”
जीजाबाई ने खिड़की की ओर संकेत करते हुए कहा “मुझे कोंधाना (सिंहगढ़) का किला चाहिए!”
शिवाजी यह सुनते ही चौंक गए। इसलिए नहीं कि वह जीत नहीं सकते थे, परन्तु इसलिए क्योंकि वह दुर्जेय था। जीजाबाई दुर्जेय और अजेय दोनों का भेद जानती थीं और यह भी जानती थीं कि शक्ति के लिए वह दुर्ग आवश्यक है। शिवाजी ने कहा
“परन्तु वह तो अभी भी मुगलों के अधीन है!”
जीजाबाई ने कंधे उचकाए और कहा “मुझे वह दुर्ग चाहिए!”
शिवाजी ने कई दुर्गों के उदाहरण दिए और कहा कि वह कोई भी दुर्ग ले सकती हैं, परन्तु उन्होंने इंकार कर दिया और कहा “मुझे केवल वही दुर्ग चाहिए!”
शिवाजी अंत में सहमत हुए। फिर वह काफी देर तक चुप बैठे रहे। युद्ध से कोंधाना का दुर्ग लेना अत्यंत दुरूह कार्य था। और मात्र एक ही व्यक्ति उनकी दृष्टि में थे, जो उन्हें वह दुर्ग लाकर दे सकते थे। और वह थे वीर और उत्साही तानाजी मालसुरे!
उन्हें स्मरण था कि वही थे जो उनके साथ आगरा के दुर्ग में साथ थे और वही उनके साथ वापस आए थे। शिवाजी ने उन्हें बुला भेजा। जब दूत उनके लिए सन्देश लेकर पहुंचा तो तानाजी के पुत्र के विवाह की तैयारी चल रही थीं। वह कर रहे थे वधु लाने की तैयारी, परन्तु उनके लिए तो भाग्य ने कुछ और ही नियत कर रखा था। उनके जीवन में वह क्षण आने वाला था, जब वह इतिहास में अमर होने वाले थे।
वह तत्काल उठे और विवाहोत्सव की तैयारियों को अधूरा छोड़कर चल पड़े, अपने शिवा और मित्र के निमंत्रण पर।
कहते हैं कि जब वह आ रहे थे तो एक पक्षी वृक्ष से उतरा और उनके पीछे पीछे उदास स्वर में गाता हुआ उड़ता रहा। यह मृत्यु का संकेत कहा जाता है, परन्तु वह रुके नहीं और चलते रहे। रात में वह अपने मित्र शिवाजी के पास पहुंचे और पूछा कि उन्हें क्यों बुलाया है।
शिवाजी ने कहा कि उन्हें माँ साहेब ने बुलाया है। जीजाबाई ने उनकी आरती उतारी और प्रश्न किया “क्या तुम मेरे लिए कोंधाना का दुर्ग ला सकते हो?” यह प्रश्न तानाजी के लिए बहुत ही चौंकाने वाला एवं गर्वित करने वाला था। उन्होंने बिना कुछ सोचे अपनी पगड़ी उतारकर जीजाबाई के चरणों में रख दी और कहा “माँ, दुर्ग आपका होगा!”
और वह चल पड़े थे सुबह ही कुछ सैनिकों के साथ।
वह फरवरी की ठंड थी और दिन था 4 फरवरी 1670। फरवरी की रात में जब वह कोंधाना के दुर्ग में पहुंचे तो दुर्ग पर चढ़ने से पहले उन्होंने अपना एक बक्सा मंगाया और उसमें उनका ऐसा साथी था, जिसके पंजों में उनके वचन के पालन की सफलता कैद थी। उसमें थी यशवंत नामक गोह! उन्होंने यशवंत के मस्तक पर तिलक किया, उसे अपना हार पहनाया और अनुरोध किया कि वह दुर्ग के ऊपर अपनी पकड़ बना ले। वह दो बार पकड़ बनाने में विफल रहा। फिर तीसरी बार उन्होंने तनिक क्रोध से कहा कि अबकी बार उसने यदि उनकी बात नहीं मानी तो वह उसका वध कर देंगे! इस बार यशवंत ने साथ निभाते हुए अपनी पकड़ बना ली और तानाजी सहित न जाने कितने योद्धाओं को दुर्ग पर पहुंचा दिया।
ऐसा प्रतीत हुआ जैसे वह भी इसी युद्ध में वीरगति के लिए ही था। उस युद्ध में दुर्ग तो आया, परन्तु चार फरवरी की रात को हुए इस युद्ध में तानाजी नहीं रहे।
तानाजी के वीरगति प्राप्त करने के बाद तानाजी के भाई सूर्याजी मालुसरे ने मोर्चा सम्हाला और बाकी सैनिकों के साथ दुर्ग पर नियंत्रण हासिल कर लिया।
“शिवा, शिवा यह विजय की धुन इतनी मध्यम क्यों है!” जीजाबाई के कानों में सिंहगढ़ के विजय की सूचना गयी तो वह प्रसन्नता से शिवाजी की तरफ आईं
शिवाजी तानाजी के जाने से अत्यंत ही दुखी थे, उन्हें ऐसा लग रहा था जैसे उनका भाई ही उनसे अलग हो गया हो!
“माँ साहेब, गढ़ आया पर सिंह गया।”
उसके बाद शिवाजी ने कोंधाना के किले का नाम सिंहगढ़ कर दिया!
4 फरवरी का दिन जहाँ शिवाजी एवं तानाजी की मित्रता को स्मरण करने का दिन है तो वहीं तानाजी और गोह यशवंत को भी स्मरण करने का दिन है!
*souce: lots of history book as well as The grand rebel Shivaji, by Dennis Kincaid