कल अर्थात 27 अक्टूबर को ट्विटर पर अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता दिवस अर्थात इंटरनेशनल रिलीजियस फ्रीडम डे मनता हुआ दिखाई दिया। इसके इतिहास आदि में न जाते हुए यह देखना महत्वपूर्ण था कि आखिर इसमें किसकी आवाज सबसे अधिक है। पूरे विश्व में अल्पसंख्यक हिन्दुओं की कोई आवाज थी? कश्मीरी पंडितों सहित जो पूरे देश में चुन चुन कर हिन्दुओं की हत्याएं हो रही हैं, क्या वह सम्मिलित थीं? या फिर पाकिस्तान में जिस प्रकार से हिन्दू लड़कियों को उठाकर उनका जबरन निकाह कराया जा रहा है, क्या उस पर बात थीं?
नहीं, इस पूरे विमर्श में हिन्दुओं पर हो रहे तमाम अत्याचार गायब थे। ऐसा लग रहा था जैसे हिन्दुओं की धार्मिक स्वतंत्रता कुछ मायने ही नहीं रखती है। चीन में उइगर मुस्लिमों को लेकर चिंता व्यक्त की गयी
कई हैंडल्स से इस बात को लेकर चिंता व्यक्त की गयी कि पूरे विश्व में लाखों लोग अपने रिलिजन या बिलीफ अर्थात धर्म या मत के चलते प्रताड़ित किए जा रहे हैं। इसे रुकना चाहिए
यहाँ तक कि यूएस कांसुलेट पेशावर तक का ट्वीट था कि कैसे वह अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता दिवस मनाते हुए केपी में संरक्षित ऐतिहासिक धार्मिक स्थलों को दिखा रहे हैं। इसमें हिन्दू मंदिर और बौद्ध मठ सहित एक परिसर है,
श्रीलंका की खूबसूरत धार्मिक विविधता का उत्सव था,
परन्तु जब इस दिन को मनाया जा रहा था, उस दिन भी वह हिन्दू उस विमर्श से एकदम गायब था, जिसके विरुद्ध अकादमिक विष उगला जा रहा है। जिसके विरुद्ध पश्चिम का अकादमिक जगत इस सीमा तक विष उगलता है कि उसके साथ हुई हिंसा के लिए उसे ही उत्तरदायी भी ठहरा दिया जाता है। जैसा अभी हाल ही में देखा गया था। इस पूरे विमर्श में हिन्दू पीड़ा खोजने से भी नहीं मिली।
यहाँ तक कि जब यह कथित विमर्श था, जब यह कथित दिन मनाया जा रहा था, उसी समय पाकिस्तान में हिन्दुओं का एक बड़ा वर्ग इस बात को लेकर आन्दोलन कर रहा था कि कम से कम हमें अपना त्यौहार अर्थात दीवाली तो कम से कम मनाने दिया जाए।
पाकिस्तान से एक वीडियो सामने आया था जिसमें लोग साफ़ साफ़ कह रहे थे कि “पाकिस्तान में हम हिंदू दिवाली नहीं मना सकते, हम होली नहीं मना सकते। उन्होंने कल रात हमारे घरों पर गोलियां चलाईं।।।12 ठग थे। हम एसपी और पीपीपी एमएनए/मंत्री से अनुरोध करते हैं कि हमारी मदद करें।।।इन आतंकवादियों को रोका जाना चाहिए। हम सिंधी हैं, हम हिंदू हैं।।। कृपया हमें दीवाली मनाएं। या हमें पासपोर्ट और वीजा दें और हमें भारत आने दें।”
इसे ही एक मानवाधिकार कार्यकर्त्ता ने भी twitter पर post किया था:
इतना ही नहीं इस कथित धार्मिक स्वतंत्रता दिवस में अफगानिस्तान में हो रही मजहबी हिंसा पर भी बात नहीं थी। अफगानिस्तान में हिन्दू, सिख बचे भी हैं या नहीं, ऐसी कुछ बात थी ही नहीं। बस एक ऊपरी ऊपरी बात थी कि कई देशों में धार्मिक अधिकार नहीं दिए जा रहे हैं, और यह चिंता का विषय है। यदि चिंता का विषय है तो पाकिस्तान जैसे देशों में हिन्दुओं पर जो अत्याचार हो रहे हैं, उन पर क्यों विमर्श नहीं होता है?
वह लगातार चल रहा जीनोसाइड ही है।
भारत में भी हिन्दुओं की क्या स्थिति है, वह किसी से छिपी नहीं है। कश्मीर के सामान्य होते वातावारण में कश्मीरी हिन्दू कहाँ हैं? यदि पर्यटन आ रहा है, पर्यटन बढ़ रहा है तो क्या कश्मीरी पंडितों की घाटी में स्वीकार्यता बढ़ी है या फिर क्या हो रहा है?
घाटी में रह रहे उन परिवारों ने भी घाटी छोड़ दी है, जो उस समय भी घाटी में डटे रहे थे, जब आतंक अपने चरम पर था। परन्तु हाल ही के एक कश्मीरी पंडित की हत्या के बाद इन सभी परिवारों ने घाटी छोड़ दी है
जब भी कभी कथित रूप से अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता दिवस मनाया जाता है, तो कश्मीरी पंडितों के जातिविध्वंस अर्थात जीनोसाइड का विमर्श क्यों नहीं आता है? कश्मीर में लक्षित हिंसा का मामला हो या फिर हिन्दुओं के पर्वों पर उन्हीं पर हमला करने वाला मामला, यह सब कभी भी अंतर्राष्ट्रीय विमर्श का हिस्सा नहीं हैं।
कश्मीर में ब्राह्मणों के साथ किए गए जीनोसाइड को कश्मीरी विद्वान जोनराज ने राजतरंगिनी में जातिविध्वंस की संज्ञा दी है। जाति का अर्थ जोनराज ने कश्मीरी पंडितों के सन्दर्भ में दिया है।

जातिविध्वंस का अर्थ है कि लोगों ने अपना धर्म बदल लिया, जो उनके लिए मृत्यु के समान था, और फिर जब पंडितों ने कहा कि वह वह जातिध्वंस करने से मर जाएंगे तो जाति की रक्षा के लिए उन पर जजिया लगा दिया।

परन्तु जोनराज ने तब जो लिखा था, आज सदियों बाद भी वही तो हो रहा है। आज भी कश्मीर घाटी में रहने वाले हिन्दुओं को यह अधिकार नहीं हैं कि वह अपने धर्म का पालन करते हुए उस जगह पर रह सकें, जहां पर मजहबी लोग हुकूमत करते हैं। उस हुकूमत में हिन्दू पर्यटक बनकर जा सकता है, उनकी रोजी रोटी बढ़ाने के लिए योगदान कर सकता है, परन्तु रह नहीं सकता, यहाँ तक कि स्थानीय हिन्दू भी नहीं रह सकता है।
परन्तु फिर भी अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता दिवस मनाया जा रहा है, तो यह विमर्श ही सिरे से गायब है। बांग्लादेश में हिन्दुओं के साथ हो रही हिंसा गायब है। यहाँ तक कि पश्चिम में अकादमिक एवं मीडिया द्वारा फैलाया जा रहा हिन्दूफोबिया भी गायब है,
“एंटी-हिंदू डिसइनफॉर्मेशन: ए केस स्टडी ऑफ हिंदूफोबिया ऑन सोशल मीडिया” नामक एक हालिया अध्ययन में दुनिया के अल्पसंख्यक हिंदू समुदाय के खिलाफ सोशल मीडिया पर व्यापक नफरत का माहौल पाया गया। यह अध्ययन रटगर्स यूनिवर्सिटी के नेशनल कॉन्टैगियन रिसर्च इंस्टीट्यूट द्वारा किया गया था। अध्ययन में कहा गया है कि हिंदूफोबिक ट्रॉप अब “मीडिया और प्लेटफार्मों के लिए एक महत्वपूर्ण विषय है।”
एक एआई-आधारित वेबसाइट हिंदुमिसिया डॉट एआई, जो माइक्रोब्लॉगिंग प्लेटफॉर्म ट्विटर पर हिंदू नफरत को ट्रैक करती है, वह भी इन सभी दावों का समर्थन करती है। साइट डेवलपर रामसुंदर लक्ष्मीनारायणन ने कहा, “Hindumisia।ai ट्विटर पर पाई जाने वाली हिंदू विरोधी घृणा का सामना करने के लिए एक विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण को सक्षम करना चाहती है।” लक्ष्मीनारायणन ने कहा, “हम जो हिंदू विरोधी नफरत देखते हैं, वह दिमाग को हैरान करने वाला है, ट्विटर पर जो हिन्दू विरोधी ट्रेन चल रही है, उसे रोका जाना चाहिए।”
परन्तु प्रश्न यही है कि रोकेगा कौन? जब भी ऐसा विमर्श उत्पन्न होगा कि धार्मिक स्वतंत्रता दिवस मनाया जाए, तो उसमें हिन्दुओं का पक्ष रखने के लिए कोई नहीं है। न ही पाकिस्तान में पीड़ित हिन्दुओं की पीड़ा है, न ही बांग्लादेश में और न ही अकादमिक विष का सामना करते पश्चिमी हिन्दुओं की पीड़ा अंतर्राष्ट्रीय विमर्श का हिस्सा है।
बल्कि उनके जातिविध्वंस को नकारने वाला ही विमर्श हावी है कि जैसे हिन्दुओं के साथ कुछ गलत हो ही नहीं रहा है। विश्व के कई देशों में धार्मिक स्वतंत्रता नहीं है, ऐसा बयान देने वाले अपने अपने देशों में हिन्दू स्वतंत्रता पर बात करें, हिन्दुओं के विरुद्ध फ़ैल रही संस्थागत घृणा पर बात करें, तो ही हिन्दुओं के लिए स्थिति बेहतर होगी।