हमें याद हो कि न हो कि 25 जनवरी 1998 को हुआ क्या था? क्या हुआ था 25 जनवरी 1998 को कश्मीर में, जब पूरे भारत में गणतंत्र दिवस की तैयारियां हो रही थीं। जब पूरे देश में अपने संप्रभु देश होने का जश्न मनाने की तैयारी चल रही थी, तब उसी समय कश्मीर में वंधामा में पूरे गाँव के हिन्दुओं को भून दिया था। शवों की जो स्थिति थी, वह ऐसी थी कि दिल दहल जाए!
आज भी जब लिखते हैं तब दहल जाता है दिल, तो फिर उस समय क्या होता होगा? क्या बीती होगी एकमात्र शेष बच्चे पर, जिसने अपने समुदाय के लोगों को गोलियों में भुनते हुए देखा। जब उसने देखा होगा कि केवल उसके समुदाय के लोगों को इसलिए मार डाला जा रहा है क्योंकि उनकी मजहबी पहचान अलग है। मगर किसी को परवाह नहीं है कि आखिर 1998 में उस रोज क्या हुआ था?
जरा कल्पना करें कि 23 कश्मीरी पंडित मारे जाएं, जिनमें कई बच्चे भी हों और पूरे गाँव का हिन्दू समुदाय नष्ट कर दिया हो, उसके अपराधियों को दंड तक न मिले? उसके अपराधियों के विषय में पता ही न हो कि अंतत: वह थे कौन? अंतत: वह खुले घुमते रहे और लोग भूल भी गए कि आखिर इतने लोग मारे क्यों गए थे? आखिर इतने लोग मात्र अपनी धार्मिक पहचान के कारण ही असमय काल के गर्त में समा गए थे? क्यों इस सीमा तक बेरुखी कि आज तक भी सरकार ने यह पता लगाने का प्रयास नहीं किया कि आखिर उन नन्हे बच्चों का दोष क्या था?
भारत का मीडिया जो 25 जनवरी को भी पूरे दिन या तो बाबा बागेश्वर धाम सरकार के दरबार को झूठा ठहराने का एजेंडा चलाता या फिर पठान को जबरन सुपरहिट कराने का अभियान चलाता था, वह तक इस तिथि के लिए यह नहीं कह सका कि आखिर उस दिन क्या क्या हुआ था और क्यों हुआ था? क्यों हुआ था?
मीडिया की स्थिति यह है कि उसके लिए अपनी टीआरपी के लिए हिन्दुओं को गाली देना, हिन्दुओं को कोसना, हिन्दुओं को पिछड़ा बताना आदि आदि सम्मिलित है, और जब हिन्दू और वह भी विशेषकर ब्राह्मण सबसे अधिक पिछड़ापन फैलाने वाले हैं, यदि ऐसा पंडित मारा भी जाता है तो क्या बुरा है? और वह भी इतना पुराना मामला? कौन देखेगा? और मारा किसने?
मारा उस मानसिकता ने, जिसके प्रश्रय में मीडिया सारा माहौल बना रहा है। जो मीडिया लव जिहाद के मामलों पर चुप्पी लगाकर बैठा होता है जो कि वंधामा जैसा ही संहार है क्योंकि उसमें भी हिन्दू की पहचान को उसी गड्ढे में फेंका जा रहा है, जिस गड्ढे में वंधामा में उन नन्हे बच्चों को फेंक दिया था, जिन्हें अपनी धार्मिक पहचान के विषय में पता तक नहीं था और वह मात्र तस्वीर ही बनकर रह गए थे।
न ही वह तस्वीरें अब चेतना में हैं, विमर्श में हैं और न ही अंतर्राष्ट्रीय चर्चा होते हुए भी 23 कश्मीरी पंडितों की हत्या यह विमर्श बना पाई कि आखिर इन पंडितों को मारा क्यों जा रहा है? क्यों उनसे जीने का अधिकार छीना जा रहा है? क्या सरकार का उत्तरदायित्व नहीं है कि वह अपने तमाम नागरिकों के जीवन का अधिकार सुनिश्चित करे और यह भी सुनिश्चित करे कि जिन्होनें आम निर्दोष नागरिकों का यह अधिकार छीना है, उन्हें दंड प्रदान करे।
दंड भी साधारण न हो क्योंकि अस्तित्व के प्रति घृणा कोई सामान्य अपराध नहीं है। दंड ऐसा हो जो आने वाले ऐसे तमाम लोगों के लिए उदाहरण बनें कि ऐसा यदि कोई और करेगा तो उसके साथ भी ऐसा ही किया जाएगा। परन्तु दुर्भाग्य यही है कि उन्हें दंड ही नहीं मिला। दंड तो छोड़ दिया जाए सरकार द्वारा इस संहार को पहचाना भी नहीं गया। उनके रक्त से सने कलावे एवं जनेऊ को भुला दिया गया:
25 जनवरी 1998 के रात सेन्ट्रल कश्मीर स्थित गंडरबल के वंधामा गाँव में जो हुआ था, अर्थात हिन्दुओं की चुन चुन कर हत्या, उसे बार-बार दोहराया गया। उस समय घाटी में नेशनल कांफ्रेंस की सरकार थी। फारुख अब्दुल्ला के हाथों में राज्य की बागडोर थी। मगर राज्य सरकार ने निंदा की, केंद्र सरकार ने निंदा की और हुआ कुछ नहीं। यदि किया होता तो आज कम से कम वह चेहरे और नाम स्मृति में होते, चेतना में होते क्योंकि दंड जुड़ा होता! परन्तु वह तो स्मृति से ही मिटाने का प्रयास किया जा रहा है
आज तक इस नरसंहार की गुत्थी उलझी है। गुत्थी का क्या है, उलझी ही रहनी चाहिए, जिससे आगे वाले राजनेताओं को अपनी राजनीति के लिए मसाला मिलता रहे। परन्तु इस मामले में वर्ष 2008 ऐसा वर्ष रहा, जिसने इस केस की फ़ाइल बंद कर दी। और यह पुलिस की ओर से कहा गया कि जिन्होनें यह किया था, उनकी पहचान भी नहीं हो सकी थी।
इसलिए इस संहार की फ़ाइल बंद कर दी गयी। ऐसी ही हर फ़ाइल धीरे धीरे बंद होती जा रही हैं। कश्मीरी पंडितों के साथ हुए इस संहार को चेतना और हर प्रकार से विस्मृत कर दिया है। मीडिया में 25 जनवरी का दिन इसी विमर्श का रहेगा कि आखिर पठान फिल्म ने कैसे बॉयकाट गैंग को हार पहुंचाई या फिर कैसे बाबा बागेश्वर धाम को मीडिया नीचा दिखाने में सफल रहा!
कैसे हिन्दू संत सन्यासी धोखा दे रहे हैं, कैसे उस बॉलीवुड का विरोध असहिष्णु हिन्दू कर रहे हैं? जबकि पठान तो देशप्रेमी है, आदि आदि!
जब बात होनी चाहिए थी कि वंधामा में जिन कश्मीरी पंडितों को मारकर गड्ढे में फेंक दिया था, लाइन लगाकर गोली मारी गयी थी, उन पर तो उस समय मीडिया और सोशल मीडिया पर बातें हो रही थीं कि बाबा बागेश्वर धाम कितने झूठे हैं! दुर्भाग्य की बात यही है कि मिशनरी से प्रेरित एनजीओ के जाल में कुछ ऐसे हिन्दू भी फंसकर अपने ही उन लोगों पर उंगली उठाने लगते हैं जो मिशनरी के संगठित जाल का सामना कर रहे हैं।
या जो लोग एक संगठित इस्लामिक कट्टरपंथी विमर्श का सामना कर रहे हैं!