सुभद्रा कुमारी चौहान की पहचान एक ऐसी रचनाकार की है जिन्होनें जीवन के हर रंग पर ऐसा लिखा है, जिसे संग्रहित किया जाना चाहिए. एक ऐसे समय में जब प्रगतिशीलता दस्तक देने वाली थी, उससे पहले सुभद्राकुमारी रच रही थीं वीरों के लिए रचनाएं, उनकी विख्यात कविता “खूब लड़ी मर्दानी, वह तो झांसी वाली रानी थी” तो पाठकों ने बहुत पढ़ी होगी, आज आइये पढ़ते हैं, उनकी दो और ऐसी रचनाएँ जिनमें देशप्रेम एवं वीरता का उद्घोष है!
आज उनकी पुण्यतिथि है, अत: आज उन्हें स्मरण करना अत्यंत आवश्यक हो जाता है, ताकि यह स्मरण रहे कि चेतना किसी बाहरी विमर्श की गुलाम नहीं थी, बल्कि वह सुलभा सन्यासिनी से लेकर सुभद्राकुमारी चौहान तक निरंतर सतत प्रवाहित हो रही थी एवं आज तक हो रही है:
वीरों का कैसा हो वसंत?
आ रही हिमाचल से पुकार,
है उदधि गरजता बार-बार,
प्राची, पश्चिम, भू, नभ अपार,
सब पूछ रहे हैं दिग्-दिगंत,
वीरों का कैसा हो वसंत?
फूली सरसों ने दिया रंग,
मधु लेकर आ पहुँचा अनंग,
वधु-वसुधा पुलकित अंग-अंग,
हैं वीर वेश में किंतु कंत,
वीरों का कैसा हो वसंत?
भर रही कोकिला इधर तान,
मारू बाजे पर उधर गान,
है रंग और रण का विधान,
मिलने आये हैं आदि-अंत,
वीरों का कैसा हो वसंत?
गलबाँहें हों, या हो कृपाण,
चल-चितवन हो, या धनुष-बाण,
हो रस-विलास या दलित-त्राण,
अब यही समस्या है दुरंत,
वीरों का कैसा हो वसंत?
कह दे अतीत अब मौन त्याग,
लंके, तुझमें क्यों लगी आग?
ऐ कुरुक्षेत्र! अब जाग, जाग,
बतला अपने अनुभव अनंत,
वीरों का कैसा हो वसंत?
हल्दी-घाटी के शिला-खंड,
ऐ दुर्ग! सिंह-गढ़ के प्रचंड,
राणा-ताना का कर घमंड,
दो जगा आज स्मृतियाँ ज्वलंत,
वीरों का कैसा हो वसंत?
भूषण अथवा कवि चंद नहीं,
बिजली भर दे वह छंद नहीं,
है क़लम बँधी, स्वच्छंद नहीं,
फिर हमें बतावे कौन? हंत!
वीरों का कैसा हो वसंत?
ट्विटर पर उन्हें राजनेताओं ने भी स्मरण किया
जलियाँवाले बाग़ में वसंत
यहाँ कोकिला नहीं, काक हैं शोर मचाते।
काले-काले कीट, भ्रमर का भ्रम उपजाते॥
कलियाँ भी अधखिली, मिली हैं कंटक-कुल से।
वे पौधे, वे पुष्प, शुष्क हैं अथवा झुलसे॥
परिमल-हीन पराग दाग़-सा बना पड़ा है।
हा! यह प्यारा बाग़ ख़ून से सना पड़ा है।
आओ प्रिय ऋतुराज! किंतु धीरे से आना।
यह है शोक-स्थान यहाँ मत शोर मचाना॥
वायु चले पर मंद चाल से उसे चलाना।
दुख की आहें संग उड़ाकर मत ले जाना॥
कोकिल गावे, किंतु राग रोने का गावे।
भ्रमर करे गुंजार, कष्ट की कथा सुनावे॥
लाना सँग में पुष्प, न हों वे अधिक सजीले।
हो सुगंध भी मंद, ओस से कुछ-कुछ गीले॥
किंतु न तुम उपहार-भाव आकर दरसाना।
स्मृति में पूजा हेतु यहाँ थोड़े बिखराना॥
कोमल बालक मरे यहाँ गोली खा-खाकर।
कलियाँ उनके लिए गिराना थोड़ी लाकर॥
आशाओं से भरे हृदय भी छिन्न हुए हैं।
अपने प्रिय-परिवार देश से भिन्न हुए हैं॥
कुछ कलियाँ अधखिली यहाँ इसलिए चढ़ाना।
करके उनकी याद अश्रु की ओस बहाना॥
तड़प-तड़पकर वृद्ध मरे हैं गोली खाकर।
शुष्क पुष्प कुछ वहाँ गिरा देना तुम जाकर॥
यह सब करना, किंतु
बहुत धीरे-से आना।
यह है शोक-स्थान
यहाँ मत शोर मचाना॥