इतिहास साक्षी है कि दुनिया में जहाँ भी जाकर ईसाईयत का प्रचार करना होता और वहां की सत्ता वा संसाधन पर काबिज होने की मंशा रखने वाले अपने शासकों के काम को सरल करना होता तो उसके लिए गोरे ईसाई मिशनरीज़ और उनके द्वारा प्रेरित विद्वानों ने एक सिद्धांत ढूंड निकला था जिसको सारी दुनिया ‘Whiteman’s burden theory’ के नाम से जानती है l
इस मिशन में भारत को भी शामिल कर मिशनरीज़ उसकी ये छवि बनाने में जुट गए कि ये अर्धसभ्य, सपेरों का देश है; इसके धर्मशास्त्र पुरातन रूढ़ीयों और झूठ का पुलिंदा मात्र है; साथ ही, इसके जितने भी धर्मगुरु हैं वे सब के सब पाखंडी हैं और ज्ञान जैसी वास्तु से कोसों दूर हैं. इसलिये भारत को, उन्होनें प्रचारित किया, इस अवस्था से छुटकारा दिलाकर सभ्य बनाने का भार ईश्वर ने उनके ऊपर डाला है!
पर इस बीच एक संयोग ये भी रहा कि कुछ यूरोपीय वा अमेरिकी विद्वानों द्वारा हिन्दू धर्म का निष्पक्ष अध्ययन शुरू हुआ, और उनके द्वारा निकाले गये निष्कर्षों से इस छवि के धूमिल होने की बुनियाद ने आकार लेना शुरू किया l “वेद मानव-जीवन के प्रत्येक पहलुओं जैसे- संस्कृति, धर्म, नीतिशास्त्र, शल्य-क्रिया, औषधि,संगीत, अन्तरिक्ष-ज्ञान, पर्यावरण तथा वास्तुशास्त्र आदि की संपूर्ण जानकारी देते हैं l”- सर विलियम जोंस l
इसी से मिलती-जुलती राय आर्थर शोपेन्होवर, राल्फ् वाल्डो एमर्सन, विल्हेल्म वोन होम्वोल्ट जैसे महान विचारक भी रखते थे l पर ये आवाजें किसी विशेष अवसर या मंच से न उठने के कारण ये दुनिया की खबर न बन सके, इसलिये विश्व-समुदाय के मत पर अपेक्षित प्रभाव छोड़ने मे सफल भी ना हो सके l भारत के लिये ये अवसर तब आया जब ११ सितम्बर से २७ सितम्बर, १८९३ के दौरान शिकागो में विश्व धर्म-संसद का आयोजन हुआ, जिसमें दुनिया भर के धर्मों के तत्वज्ञानी इकट्ठे हुए, अपने-अपने धर्म के पक्ष को प्रस्तुत करने l ये आयोजन देश के अन्दर, देश के बाहर भारत के अतीत, उसके पूर्वज, उसके धर्म के प्रति दृष्टि बदल डालने वाला साबित हुआ l और इस नितांत ही असंभव से दिखने वाले कार्य को जिस महामानव ने इस धर्म-संसद मे शामिल होकर अकेले अपने बलबूते पर कर दिखाया वो थे स्वामी विवेकानंद l
धर्म-संसद में भाग लेने में विवेकानंद को एक साथ कई उद्देश्य पूरे होते दिखे. वास्तव में ये वो समय था जबकि चर्च संचालित अंग्रेजी-मिशन विद्यालयों-महाविद्यालयों से पढ़कर भारतीय युवक अपने स्व के प्रति हीनता के दृढ़ भाव के साथ बाहर निकलता l इन स्कूलों से पढ़कर निकले ये वो युवक थे जो किसी भी बात को तब तक स्वीकार करने को तैयार नहीं थे जब तक कि वो अंग्रजों के मुख से निकलकर बाहर ना आयी हो l
साथ ही, विश्व धर्म-संसद का घोषित उदेश्य भले ही सभी धर्मों के बीच समन्वय स्थापित करना हो, पर ईसाई चर्च इसको इस अवसर के रूप मे देख रही थी जब कि इसाई-धर्म के तत्वों को पाकर विश्व के सभी धर्म के अनुयायी इसके प्रभुत्व को स्वीकार कर इसके तले आने को लालायित हो उठेंगे l वे मानकर चलते थे कि वो तो ईसाइयत के अज्ञान के कारण से ही दुनियावाले अपने-अपने धर्मों को गले से लगाये बैठे हैं l [‘शिकागो की विश्व धर्म महासभा’- मेरी लुइ बर्क (भगिनी गार्गी)]
इस पृष्ठभूमि मे विवेकानंद जब धर्म-संसद में भाग लेने उपस्थित हुए तो उन्हें उद्दबोधन के लिया अंत तक इन्तजार करना पड़ा l पर जब बोले तो हिंदुत्व के सर्वसमावेशक तत्वज्ञान से युक्त उनकी ओजस्वी वाणी का जादू ऐसा चला कि उसके प्रभाव से कोई भी न बच सका l फिर तो बाद के दिनों में उनके जो दस-बारह भाषण हुए वो अंत में सिर्फ इसलिये रखे जाते थे जिससे उनको सुनने कि खातिर श्रोतागण सभागार मे बने रहें l
ये देख अपनी प्रतिक्रिया मे अमेरिका के तब के तमाम समाचार पत्र उनकी प्रशंसा से भर उठे l द न्यूयॉर्क हेराल्ड लिखता है- ‘ धर्मों कि पार्लियामेंट में सबसे महान व्यक्ति विवेकानंद हैं l उनका भाषण सुन लेने पर अनायास ये प्रश्न उठ खड़ा होता है कि ऐसे ज्ञानी देश को सुधारने के लिये धर्म प्रचारक[ईसाई मिशनरी] भेजना कितनी बेवकूफी की बात है l’ अपने-अपने पंथ-मजहब के नाम पर क्रूसेड और जिहाद के फलस्वरूप हुए रक्तपात की आदी हो चुकी दुनिया के लिये विवेकानंद के उद्दबोधन में विभिन्न मतालंबियों के मध्य सह-अस्तित्व की बातें कल्पना से परे कि बाते थीं- “जो कोई मेरी ओर आता है- चाहे किसी प्रकार से हो- मैं उसे प्राप्त होता हूँ l” [गीता]
गीता के उपदेश को स्पष्ट करते हुए विवेकनन्द के द्वारा कही गई ये बात कि हिन्दू सहिष्णुता मे ही विश्वास नहीं करते, वरन समस्त धर्मों को सत्य मानते हैं श्रोताओं के लिया अद्भुत बात थी l
विवेकानंद गये तो थे केवल धर्म-संसद में शामिल होने पर इसके परिणामस्वरुप निर्मित वातावरण को देख उन्होने भारत जल्दी लोटने का इरादा बदल दिया l राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर के शब्दों में- ‘धर्म-सभा से उत्साहित होकर स्वामीजी अमेरिका और इंग्लैंड में तीन साल तक रहे, और रहकर हिन्दू-धर्म के सार को सारे यूरोप वा अमेरिका में फैला दिया l अंग्रेजी पढ़कर बहके हुए हिन्दू बुद्धिवादियों को समझाना कठिन था, किन्तु जब उन्होंनें देखा कि स्वयं यूरोप और अमेरिका के नर-नारी स्वामीजी के शिष्य बनकर हिंदुत्व की सेवा में लगते जा रहे हैं तो उनकी अक्ल ठिकाने पर आ गई l इस प्रकार, हिंदुत्व को लीलने के लिये ब्रिटिश-शिक्षा, ईसाई धर्म और यूरोपीय बुद्धिवाद के रूप में जो तूफ़ान उठा था, वह स्वामी विवेकानंद के हिमालय जैसे विशाल वृक्ष से टकरा कर लौट गया l’ [संस्कृति के चार अध्याय]