भारत रत्न भीमराव अम्बेडकर जब युवा थे, वे शाम के वक्त मुंबई के चर्नी रोड गार्डन (अब सा.का. पाटिल गार्डन) जाकर पढाई किया करते थे | इसी बाग़ में तब के विल्सन हाई स्कूल के ब्राह्मण प्रधानाध्यापक कृष्णाजी अर्जुन कैलुस्कर भी अक्सर घूमने जाया करते थे | जिस मनोयोग से भीम राव अध्ययन में लीन रहा करते थे, उस पर कैलुस्कर की अक्सर नज़र टिक जाया करती थी |
वे भीमराव से परिचय करने से स्वयं को न रोक सके | परिचय हुआ, और धीरे-धीरे उनके बीच एक गुरु और शिष्य के भांति गहन आत्मीय संबधों ने आकार लेना शुरू कर दिया | बाबासाहब बताते हैं-‘ उनके साथ हुआ संभाषण मुझे विचारप्रवृत करता था |’
बाबासाहब जिस महार जाति से थे, उसमें किसी का पढ़-लिखकर निकल जाना उस समय बढ़ी बात हुआ करती थी | ऐसे में सन १९०७ में जब उन्होंने अपनी जाति में पहले विद्यार्थी के रूप में मेट्रिक पास हो कर उसका गौरव बढ़ाया, तो लोगों नें भी उनका पूरे जौर-शौर से सम्मान करने का निश्चय किया | इस आयोजन के लिए भीमराव ने जिसे प्रमुख अतिथि के रूप में चुना वो कोई और नहीं बल्कि कैलुस्कर ही थे |
इस अवसर पर उन्होंने भीमराव को अपनी लिखी एक पुस्तक भेंट करी जो कि गौतम बुद्ध के जीवन पर लिखी गयी थी | भीमराव ने समय न गवांते हुए उस पुस्तक को घर जाकर उसी दिन पढ़ डाला | जिस गहरी उलझन को लेकर उनका जीवन अब तक संतप्त था, इस पुस्तक के माध्यम से कैलुस्कर ने एक गुरु के रूप में उन्हें मार्ग दिखाने का काम किया |
दरअसल बाबा साहब का जीवन बचपन से ही उस समय के समाजानुसार जाति अवमाना से त्रस्त जीवन रहा था, जिसके कारण उन्हें ये लगने लगा था कि वो शायद ज्यादा दिनों हिन्दू धर्म में बने नहीं रह पायेंगे | आत्मीय सम्बन्ध होने के कारण ये बात कैलुस्कर से छुपी नहीं थी | और इस प्रकार उन्होंने बोद्ध-धर्म के बीज बाबा साहब के मन में बो कर हिन्दू-धर्म को छोड़ने के बाद भी भारतीय मूल चेतना के धर्म में ही बने रहने की प्रेरणा उनके अंदर निर्मित करी |
लन्दन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स से अर्थशास्त्र में पी.एच.डी. करनेवाले पहले भारतीय होने का जिन्हें गौरव प्राप्त हुआ वो थे बाबा साहब अम्बेडकर | इंग्लैंड भेजने में अम्बेडकर की जिन्होंने आर्थिक सहायता करी वो थे बड़ोदा रियासत के राजा सयाजी राव गायकवाड़ | और सयाजी को इस मानवता के कार्य के लिए प्रेरित करने वाले भी कोई और नहीं बल्कि ब्राह्मण शिक्षक कृष्णाजी अर्जुन कैलुस्कर ही थे |
इस प्रकार केवल वैचारिक स्तर पर ही नहीं, बल्कि कृति के स्तर पर भी जहां भी और जब भी जरुरत पड़ी बाबासाहब को उनका सहयोग मिलता रहा | गुरु-शिष्य के मध्य परस्पर आत्मीय प्रेम का ही ये परिणाम है कि आगे चल कर जब-जब उनको हिन्दू धर्म से अलग करने के प्रयत्न हुए वो सब निष्फल ही साबित हुए |
बाबा साहब अम्बेडकर का कहना था कि- ‘ईसाई हो जाने से भेद प्रिय मनोवृति नष्ट नहीं होगी | जो ईसाई हुए हैं, उनमें ब्राह्मण ईसाई, मराठा ईसाई, महार, मांग, भंगी ईसाई जैसे भेद कायम हैं. हिन्दू समाज की तरह ईसाई समाज भी जतिग्रस्त है | जो धर्म देश की प्राचीन संस्कृति को खतरा उत्पन्न करेगा अथवा अस्पृश्यों को अराष्ट्रीय बनाएगा, ऐसे धर्म को मैं कभी भी स्वीकार नहीं करूँगा | क्यूंकि इस देश के इतिहास में मैं अपना उल्लेख विध्वंशक के नाते करवाने का इच्छुक नहीं हूँ |’ [- डॉ.अम्बेडकर और सामाजिक क्रांति की यात्रा; पृष्ठ-२७८]
कहना पड़ेगा की बाबा साहब का तब का आकलन गलत नहीं था | इस सन्दर्भ में Tamilnadu Untouchability Eradication Front [तमिलनाडु अछूत निवारण मोर्चा] की वो रिपोर्ट देखने के काबिल है जो कि २०१८ में प्रकाशित हुई थी | रिपोर्ट बताती है कि दलित इसाईयों के लिए गाँवों में अलग चर्च और कब्रिस्तान मिलना आम है | गिरजाघर के प्रशासन, पादरी के पद, व्यवसायिक -शैक्षणिक गतिवीधीयों को लेकर वन्नियार और नादार उच्च जाति के इसाई लोगों के हांथों दलित इसाई भेदभाव से पीड़ित हैं | कई मामलों में तो उन्हें सामाजिक बहिष्कार तक झेलना पड़ता है |
जहां तक सवाल बाबासाहब का इस्लाम के प्रति दृष्टिकोण का है, इसका अनुमान विभाजन को लेकर उनके इस कथन से लगाया जा सकता है कि- ‘मै पाकिस्तान में फंसे हुए दलित समाज से कहना चाहता हूँ कि उन्हें जो मिले, उस मार्ग व साधन से हिंदुस्तान आ जाना चाहिए | पाकिस्तान अथवा हैदराबाद की निजामी रियासत के मुसलमान अथवा मुस्लिम लीग पर विश्वास रखने से दलित समाज का नाश होगा |’ [- डॉ.अम्बेडकर…;पृष्ठ १४४]
बाबा साहब शिक्षा को ‘शेरनी का दूध’ कहा करते थे | उन्होंने जान लिया था कि यदि दलित समाज में सिर उठा कर जीने की भावना निर्मित करनी हो तो ये उन्हें शिक्षित करके ही संभव है | इसलिए उन्होंने ‘ पीपुल्स एजुकेशन् सोसाइटी’ की स्थापना कर सिद्धार्थ महाविद्यालय प्रारंभ किया | इसके संस्थापक सदस्यों में एस.सी.जोशी, वी.जी. जोशी, बेरिस्टर समर्थ, मुले और चित्रे जैसे ब्राह्मण लोग थे |
अपनी जाति के कारण सामाजिक अवमानना और दूसरी और अस्पृश्यता को मानवता पर कलंक मानने वाले उच्च जातिय लोगों के एक वर्ग द्वारा समय पर मिले सहयोग और प्रेम के इस अनुभव से गुजरने पर निकले निष्कर्ष के आधार पर उनका मत था कि-‘ हिन्दू संगठन राष्ट्रीय कार्य है | वह स्वराज से भी अधिक महत्त्व का है | स्वराज के रक्षण से भी स्वराज के हिन्दुओं का संरक्षण करना अधिक महत्त्व का है | हिन्दुओं में सामर्थ्य नहीं होगा तो स्वराज का रूपांतरण दासता में हो जाएगा |’
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