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Thursday, June 1, 2023

अपने घर में वे विदेशी थे

19 वीं सदी में देश में अंग्रेजों के द्वारा शुरू की गयी  शिक्षा का  परिणाम क्या हुआ उस पर रामधारी सिंह दिनकर कहते हैं कि इसके प्रभाव से नव-शिक्षित युवकों की मनोवृति पराजितों की मनोवृति हो गयी |अपने ईसाई शिक्षक, ईसाई दोस्तों और अंग्रेजों के सामने अपने मस्तक को उठाये रखने के लिए उन्होंने खुलकर अपने धर्म की भर्त्सना करना शुरू कर दी, ठीक उसी प्रकार  जिस प्रकार से ईसाई मिशनरी कर रहे थे | इन युवकों  से जो अधिक विचारवान थे उन्होंने घोषणा कर दी कि हिंदुत्व के नवीन और प्राचीन, वैदिक और पुराणिक, सकारवादी और निराकार वादी सभी रूप व्यर्थ हैं | पाठ्यक्रम में धर्म का स्थान न होने के कारण इन्हें अपने धर्म से तनिक भी परिचय नहीं  था | अपने घर में वे विदेशी थे |[पृष्ठ 525, 526, ‘संस्कृति के चार अध्याय’]

1947 में आज़ादी मिली और अँगरेज़ चले गए| लेकिन अपने  पीछे वो जो विरासत छोड़ गए थे उसको अब आगे बढ़ाने का काम ‘सेकुलरिज्म’ के नाम से चला| इसका असर कितना गहरा था इसका अनुभव मुझे स्वयं को तब हुए जब मेरा पिछले दिनों एक व्यख्यान में जाना हुआ| वहां मुझे एक वक्ता के मुख से एक किस्सा सुनने को मिला| किस्सा एक ऐसे युवक का था जो कि वक्ता का मित्र था और अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी कर वो 1976 में अमेरिका चला जाता है| 14 वर्ष बाद  1990 में उसका मुंबई में आयोजित एक सेमीनार में शामिल होने  देश में आना होता है| पोश इलाके में स्थित पांच सितारा होटल में ठहरने के कारण वो कहता है कि उसे ऐसा नहीं लग रहा था कि वो अमरीका छोड़ अपने देश में आ चुका है| पर अगले दिन सुबह उसे मंदिर की  घंटी सुनाई देती है| वो ढूँढता हुआ मंदिर पहुँच जाता है| फिर जब तक  सेमिनार में रहा, वो नित्य मंदिर गया|

सेमिनार पूर्ण हुआ, और आखरी दिन अंत में प्रतिभागीयों को आमंत्रित किया गया  अपने अनुभवों को सबके साथ साझा करने के लिए| और जब इसकी बारी आयी तो उसने अपनी बात पूरी करते हुए अंत में कहा, ‘निस्संदेह, मैंने सेमीनार से  बहुत कुछ प्राप्त किया, पर भारत के प्रवास में  मेरा मंदिर जाना मेरी स्मृति में सदा अंकित रहेगा| मेरे लिए ये परमानन्द का क्षण था|’

उसकी ये बात सुनकर उसके एक भारतीय साथी नें बाद में उसे टोका- ‘ये क्या बोल रहे थे मंदिर के बारे में| इस व्यक्तिगत आस्था की बातों को सार्वजानिक करने की  क्या जरूरत| तुम्हे पता नहीं  यहाँ इस सेमीनार में ईसाई और मुसलमान भी हैं, और  उनकी भावना को ठेस पहुँच सकती है!’

इस युवक को समझ में नहीं आ रहा था कि उसके मंदिर जाने की बात से किसी की भावना  को क्यूँ आहत होना चाहिए| पर उसे क्या पता था कि ये उस ‘सेकुलरिज्म’ का कमाल था जिसके कारण  तब के जनमानस में ‘स्वधर्म’ और ‘स्वाभिमान’ को लेकर न जाने कितनी ही इस प्रकार की आत्महीनता से युक्त बातों नें अपना स्थान बना रखा  था|

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Rajesh Pathak
Rajesh Pathak
Writing articles for the last 25 years. Hitvada, Free Press Journal, Organiser, Hans India, Central Chronicle, Uday India, Swadesh, Navbharat and now HinduPost are the news outlets where my articles have been published.

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