रतलाम में महालक्ष्मी मंदिर में पुजारी की दक्षिणा वाला मामला भी अब हल हो गया है। जैसे ही यह समाचार पत्रिका में प्रकाशित हुआ था, वैसे ही आम हिन्दू के रक्त में उबाल आ गया था। आखिर मामला था ही ऐसा, बात थी ही कुछ ऐसी। मंदिर में आई दक्षिणा को पुजारी ने अपनी जेब में रख लिया था और उसे लेकर वीडियो ही नहीं बनाया गया बल्कि प्रशासन ने नोटिस भी थमा दिया।
इस खबर के वायरल होते ही एक बड़ा वर्ग ऐसा था जो स्पष्ट है कि ब्राह्मणों को कोसने लगा, उन्हें अपमानित करने लगा। परन्तु एक बहुत बड़ा वर्ग था, जो आहत हुआ। वह आहत इसलिए हुआ, कि एक ओर तो मस्जिद के इमामों को सरकारी वेतन दिया जाता है, तो वहीं मंदिरों के पुजारियों की स्थिति किसी से छिपी नहीं है। रतलाम में जो घटना हुई, उसके पीछे एक नहीं कई कारण हैं और यह भी देखने की बात है कि आखिर इस घटना के बीज कहाँ पर हैं?
इस घटना के बीज कहीं उस शिक्षा में तो नहीं हैं, जो हम अपने बच्चों को औपचारिक या अधिकारिक रूप से दे रहे हैं? इस घटना के बीज कहीं कथित स्वतंत्रता के बाद से तो नहीं बोए हैं या फिर उससे पहले? वह कौन सी मानसिकता है जो पंडित-पुजारियों को उनका पारिश्रमिक भी नहीं देने देती है और यह कौन सी विवशता है जो अधिकारियों से ऐसे कुकृत्य करवाती है?
हम सभी ने शब्द सुना होगा ब्राह्मणवाद! यह क्या है? और यह कैसे प्रभाव डाल सकता है, क्या इसका मनोवैज्ञानिक अध्ययन किया गया है? इसे किया जाना चाहिए। हमारी पुस्तकों में बच्चों को बचपन से ही यह पढ़ाया जाता है कि ब्राह्मण शोषक थे, तथा समाज के एक बड़े वर्ग का उत्पीड़न किया करते थे। मनुस्मृति के श्लोकों का मनचाहा अर्थ निकालकर उसके आधार पर ब्राह्मण, पंडितों एवं पुरोहितों के प्रति घृणास्पद अवधारणा का विकास किया जाता है।
मनुवाद से आजादी, ब्राह्मणवाद से आजादी के नारे क्रांतिकारियों की तरह लगवाए जाते हैं, और साहित्य तो शोषण की गाथाओं से भरा पड़ा है। जिन्होनें ब्राहमणों को कोसा उन्हें ही पाठ्यक्रम में पढ़ाया जा रहा है। परन्तु सबसे मजे की बात यह है कि इस्लामी कट्टरता को अकादमिक विमर्श से ही बाहर नहीं कर दिया है बल्कि इतिहास से भी गायब कर दिया है।
ब्राह्मणों को मार कर विमर्श पर एक नया अतिक्रमण किया गया। विमर्श को एकदम ही अलग रूप दे दिया गया। समय के साथ जिन्होनें वास्तव में हिन्दू समाज पर अत्याचार किए, उन्हें ब्राह्मणों का पीड़ित घोषित किया जाने लगा। इतिहास के नाम पर गल्प और कपोल कल्पित बातों को ही सुनाया जाने लगा और बच्चों को दलित साहित्य, दलित राजनीति आदि के माध्यम से ब्राहमणों के विरुद्ध खड़ा किया जाने लगा।
इसके साथ ही मंदिर को तो सार्वजनिक स्थल माना गया, परन्तु मस्जिद, चर्च आदि को उस समुदाय का निजी स्थान मान लिया गया। जैसा हमने अभी हाल ही में देखा था। एक ऐसा परिदृश्य अकादमिक और कानूनी स्तर पर बना दिया गया है, जिसमें ब्राह्मण ही सबसे बड़ा दोषी है, जबकि जिन्होनें मनु स्मृति की व्याख्या अंग्रेजी में की थी, उन्हें संस्कृत नहीं आती थी। किसी भी धर्म से सम्बन्धित साहित्य का दूसरी भाषा में भाषांतरण के लिए यह आवश्यक है कि उस धर्म की मूल बातों का ज्ञान हो।
परन्तु मनुस्मृति के साथ ऐसा नहीं हुआ, रामायण के साथ ऐसा नहीं हुआ। मनुस्मृति सहित सभी स्मृतियाँ, उपनिषदों एवं रामायण तथा महाभारत पर मनचाहे अकादमिक विमर्श उन लोगों के द्वारा भी किए गए जिन्हें न ही हिन्दू धर्म का ज्ञान था, और न ही हिन्दू धर्म में आस्था!
साहित्य और फिल्मों ने पंडित और पुरोहित को और नीचा दिखाना आरम्भ कर दिया, एवं हिन्दुओं की धार्मिक आस्था और संविधान में प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को हिन्दुओं की धार्मिक स्वतंत्रता पर आघात करने का माध्यम बना लिया। कथित सुधार के भाव के नाम पर हिन्दू धर्म की मूल अवधारणाओं पर प्रहार जैसा मूल अधिकार मान लिया गया एवं हिन्दुओं को संविधान में धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार प्राप्त हैं, उन पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। धर्मनिरपेक्षता के समस्त प्रयोग हिन्दुओं के साथ किए गए और विशेषकर ब्राह्मणों, पुजारियों एवं पुरोहितों को लेकर।
हिन्दू धर्म में दान और दक्षिणा दो अलग अलग बातें हैं। दान सार्वजनिक है, जबकि दक्षिणा किसी यज्ञ या धार्मिक संकल्प पूर्ण होने के उपरान्त गुरु या पुरोहित या यज्ञ सम्पन्न कराने वालों को प्रसन्नता से प्रदान की जाती है। अर्थात यह व्यक्तिगत है।
और दक्षिणा देना हिन्दुओं के धार्मिक अधिकारों में सम्मिलित है। क्या यह प्रशासन अब निर्धारित करेगा कि हिन्दू अपने धार्मिक अधिकारों का पालन कैसे करे? वैसे भी हिंदुओं के तमाम धार्मिक अधिकारों पर प्रशासन द्वारा समय समय पर तमाम प्रकार के प्रतिबंधों को क्रियान्वित किया गया है। हिन्दुओं की परम्पराओं पर प्रारम्भ से ही प्रहार होने लगते हैं।
मुंडन से लेकर अंतिम संस्कार तक उनके संस्कारों पर सरकारी ही नहीं गैर सरकारी हस्तक्षेप आरम्भ होता है। और यही कारण है कि ऐसा करते समय हिन्दुओं के धार्मिक अधिकारों को जरा भी ध्यान में नहीं रखा जाता है और रतलाम जैसी घटनाएँ होती हैं, क्योंकि पत्रकार से लेकर प्रशासन तक हिन्दुओं को सार्वजनिक मानता है, हिन्दू धर्म को सार्वजनिक भूमि मानता है, जिसके विषय में कोई भी कुछ बोल सकता है, न्यायालय में जाकर याचिका दायर कर सकता है और पुरोहितों को इस प्रकार प्रताड़ित कर सकता है।
इस विषय में हिन्दुओं को और मुखर होकर सोचने की आवश्यकता है कि स्वीकार्यता और सहिष्णुता के नाम पर अपना विमर्श अकादमिक्स के हवाले करना है या फिर कोई सीमा निर्धारित करनी है, ताकि आने वाले समय में ऐसी कई घटनाओं को होने से रोका जाए!